‘जिजीविषा’

जिजीविषा…?
जीने की उत्कट अभिलाषा
सहस्त्रों वर्षों से यूं ही
दुःखों पीड़ाओं को भूल
मौत को भी मात देती
हाड़-मांस की नश्वर देह।
इतना ही नहीं
उन शत-कोटि देवताओं को
खुली चुनौती देती
मर्त्य-आत्माओं की अघोषित रणभेरी
माना कि तुम बने अमर,
हुए शतायु
पा ली देवत्व की प्रतिष्ठा
पीकर समुद्र मंथन से निकले उस अमृत को
जिसे दानवों से तुमने
छल से किया था हस्तगत।
किंतु हमने भी अब
जान लिया
अमरत्व के उस रहस्य को
ठान लिया होकर रहेंगे अमर
अपनी संतानों के रूप में
जीते रहेंगे युगों-युगों
पूरी करके ही दम लेंगे
अपनी आशा, आकांछा, अभिलाषा
ताकि झुठला सकें
तुम्हारे इस विधान को
कि मानव शरीर है नश्वर
इसे मिल ही जाना है
एक दिन खाक में….।

‘जिजीविषा’

रचनाकार
संतोष पाण्डेय ‘सिद्धार्थ’
पत्रकार

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