ज्ञान सुधा (भाग-18)
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भोग की चाह मन से निकल हीं गयी
प्रीति सम्मान अपनों का कम हो गया
नेत्र की ज्योति संग क्षीण बलभी हुआ
रूप यौवन तो पहले चला हीं गया।
जिसको पाने की चाहत में जीवन गया
मिल सका भी नहीं हांथ खाली रहा
मृत्यु का नाम सुनते हीं कंपता हृदय
जीने की चाह कितनी प्रबल है यहां।
काम कब होगा कब वस्तु हमको मिले
आशा चिंता उफनती नदी बन गई
रात दिन भ्रम नदी में रहे डूबते
पार हो ना सके जिंदगी ढल गई।
मन है निर्मल सदा वासना से विरत
योगि जन दूर रहते नदी से सदा
मिलता आनन्द उनको है परब्रह्म का
आशा तृष्ना से बंधते नही वे कदा।
वासना भोग तो छूटेंगे एक दिन
सत्य है इसमें सन्देह कोई नहीं
चाहे हम छोड़ें या फिर हमें छोड़ दें
त्यागने में स्वयं ग्लानि होगी नहीं।
वासना जब स्वयं छोड़ देती हमें
ग्लानि की ज्वाला मन में है जलती तभी
त्याग संकल्प दृढ़ से स्वयं जब करें
सच्चा आनन्द सुख शांति तन में तभी।
कामना फल की आशा से जो पुण्य हो
मिलते फल हीं सुकृत नष्ट हो जाते हैं
पुण्य संचित से स्वर्गादि को भोग भी
पुण्य गत होने से कष्ट दे जाते हैं।
ब्रह्मज्ञानी सहज कृत्य करते बड़े
त्याग देते सदा भोग धन कामना
मोह माया में जो लिप्त जोवन यहां
फिर वही दुख व संकट का कारण बना।
रचनाकार- डा. प्रदीप दूबे
(साहित्य शिरोमणि) शिक्षक/पत्रकार