जब तलक….
गाँव में सुंदरता दिखे कहाँ…?
जब तलक……
नदी-नार, जंगल-पहाड़ न हों,
गाँव का गोधन अधूरा है सुनो,
जब तलक…..
गाँव में घूम रहा साँड़ न हो
पगडंडी भी गाँव की सूनी दिखे
जब तलक…..
अगल-बगल झाड़-झंखाड़ न हो
गाँव का कोई मकान पूरा कहाँ..?
जब तलक…..
मकानों में एकाध टाँड़ न हो,
घरों में पक रहा चावल सही कहाँ
जब तलक……..
निकल गया माँड़ न हो
गाँव का हर मेला अधूरा
जब तलक……
मेले में कोई छेड़छाड़ न हो,
गाँव में पुलिस भी कुछ क्यों करें
जब तलक…….
ठीक-ठाक मार-धाड़ न हो,
गाँव में रोगी को राहत मिले कैसे
जब तलक……
बैद्य की औषधि रामबाण न हो,
गाँव में भौजाई की सुंदरता फीकी
जब तलक…..
घूँघट की आड़ न हो……!
गाँव में नवयुवकों के सब दम ढीले
जब तलक……
गाँव में मिट्टी वाले अखाड़ न हो
पहलवानों के सब दांव हैं रद्दी
जब तलक…..
दांव में दांव धोबी पछाड़ न हो,
गाँव में सब कुछ लगे अटपटा सा
जब तलक…….
बुजुर्गों की कसकर दहाड़ न हो,
गाँव में बुजुर्गों को भी
आता कहाँ मजा भला,
जब तलक…….
हर बात का तिल का ताड़ न हो
गाँव वालों के पायजामे,
कमर पर टिके तो कैसे…?
जब तलक……
पायजामे में डोरी-नाड़ न हो
गाँव में मजदूर की
आँखे कहाँ चमकती….?
जब तलक…….
लाई-चना के संग खाँड़ न हो,
गाँव में आनन्द अधूरा
जब तलक……
आपस में कोई राढ़ न हो,
गाँव में महफिलें आबाद हों कैसे
जब तलक…..
महफिलों में कोई भाँड़ न हो,
एक और बात मित्रों…..
गाँव में सावन भला आए तो कैसे
जब तलक…..
खतम पूरा अषाढ़ न हो…..!!
रचनाकार- जितेन्द्र दुबे
अपर पुलिस अधीक्षक
जनपद-कासगंज
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