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सामंजस्य

सामंजस्य

हमारे गाँव-देश का,
मध्यम वर्गीय व्यक्ति….!
अक्सर… झूठा दिखावा करता है..
समाज में कुछ सम्मान पाने को…
कुछ का… कुछ बोल जाता है…
खुद का वजूद दिखाने को…
हर तिकड़म करता रहता है,
अपना अस्तित्व जताने को…
कुल मिलाकर.. हर जतन करता है
वह… लोगों के नजदीक आने को..
मन में… जाने क्या-क्या…!
सपने बुनता रहता है.. और…
उसी को… सच करने में…
लालटेन-लैंप का.. बल्व-इन्वर्टर से
पत्र-पत्रिकाओं का लैपटॉप-नेट से
दरी-कथरी का सोफ़ा और बेड से
सामञ्जस्य बिठाता रहता है
इतना ही नहीं वह…..!
सामञ्जस्य विठाता है…
अंग्रेजी का हिंदी-संस्कृत से,
नर्सरी-किंडरगार्टन का प्राइमरी से,
विज्ञान का कला से… और…
इन सबके अलावा….
गरीबी का अमीरी से भी…..
यही सामञ्जस्य बिठाने में….!
वह भूलने लगता है…
अपना अतीत… साथ ही खुद के..
वर्तमान को कर देता है.. व्यतीत…
सफलता मिलने पर….!
मानवीय स्वभाव के अनुरूप…
वह हो जाता है… कुछ ज्यादा ही..
उच्श्रृंखल या फिर संवेदनशील…!
असफलता उसे….!
ब्रह्मराक्षस बना देती है,
मजबूर कर देती है,
दुनियावी भँवर में….!
छप-छप करते हुए,
आत्म-शोधन के लिए… और…
फिर से समाज में,
सामञ्जस्य बिठाने के लिए….
साथ ही…उसे मजबूर कर देती है,
किसी भी तरह से… समाज में….
खुद का अस्तित्व बचाने के लिए..
किसी भी तरह से… समाज में…
खुद का अस्तित्व बचाने के लिए..
रचनाकार—— जितेन्द्र दुबे
अपर पुलिस अधीक्षक
जनपद-कासगंज।

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