जयंती की पूर्व संध्या पर याद किए गये स्वामी विवेकानंद

जयंती की पूर्व संध्या पर याद किए गये स्वामी विवेकानंद

जीपी वर्मा
बाराबंकी। श्री नागेश्वरनाथ धाम स्थित स्वामी विवेकानंद की प्रतिमा पर माल्यार्पण एवं पुष्प अर्पित कर जन्म दिवस की पूर्व संध्या पर उन्हें याद किया गया। स्वदेश समाचार पत्र के ब्यूरो चीफ दिनेश श्रीवास्तव की अगुवाई में हुए इस कार्यक्रम में वरिष्ठ पत्रकार साथियों के साथ नगर के संभ्रांत व्यक्तियों द्वारा स्वामी जी के चरणों में श्रद्धा सुमन अर्पित किए गए। स्वामी जी के जीवन पर प्रकाश डालते हुए उप्र श्रमजीवी पत्रकार यूनियन के महामंत्री गोविन्द वर्मा ने कहा कि स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी सन्‌ 1863 को हुआ।

उनके बचपन का नाम नरेंद्र दत्त था। उनके पिता विश्वनाथ दत्त पाश्चात्य सभ्यता में विश्वास रखते थे। वे अपने पुत्र नरेंद्र को भी अंग्रेजी पढ़ाकर पाश्चात्य सभ्यता के ढंग पर ही चलाना चाहते थे। नरेंद्र की बुद्धि बचपन से बड़ी तीव्र थी और परमात्मा को पाने की लालसा भी प्रबल थी। सन्‌ 1884 में विश्वनाथ दत्त की मृत्यु हो गई। घर का भार नरेंद्र पर पड़ा। अत्यंत गरीबी में भी नरेंद्र बड़े अतिथि-सेवी थे। स्वयं भूखे रहकर अतिथि को भोजन कराते, स्वयं बाहर वर्षा में रातभर भीगते-ठिठुरते पड़े रहते और अतिथि को अपने बिस्तर पर सुला देते।

रामकृष्ण परमहंस की प्रशंसा सुनकर नरेंद्र उनके पास पहले तो तर्क करने के विचार से ही गए थे किंतु परमहंस ने देखते ही पहचान लिया कि ये तो वही शिष्य है जिसका उन्हें कई दिनों से इंतजार था। परमहंस की कृपा से इनको आत्म-साक्षात्कार हुआ फलस्वरूप नरेंद्र परमहंस के शिष्यों में प्रमुख हो गए। संन्यास लेने के बाद इनका नाम विवेकानंद हुआ। स्वामी विवेकानन्द अपना जीवन अपने गुरुदेव स्वामी रामकृष्ण परमहंस को समर्पित कर चुके थे। गुरुदेव के शरीर-त्याग के दिनों में अपने घर और कुटुंब की नाजुक हालत की परवाह किए बिना, स्वयं के भोजन की परवाह किए बिना गुरु सेवा में सतत हाजिर रहे। 25 वर्ष की अवस्था में नरेंद्र दत्त ने गेरुआ वस्त्र पहन लिए। तत्पश्चात उन्होंने पैदल ही पूरे भारतवर्ष की यात्रा की। सन् 1893 में शिकागो में विश्व धर्म परिषद हो रही थी। स्वामी विवेकानंद उसमें भारत के प्रतिनिधि के रूप से पहुंचे।

यूरोप-अमेरिका के लोग उस समय पराधीन भारतवासियों को बहुत हीन दृष्टि से देखते थे। वहां लोगों ने बहुत प्रयत्न किया कि स्वामी विवेकानंद को सर्वधर्म परिषद् में बोलने का समय ही न मिले। एक अमेरिकन प्रोफेसर के प्रयास से उन्हें थोड़ा समय मिला किंतु उनके विचार सुनकर सभी विद्वान चकित हो गए।
फिर तो अमेरिका में उनका बहुत स्वागत हुआ। वहां इनके भक्तों का एक बड़ा समुदाय हो गया। तीन वर्ष तक वे अमेरिका रहे और वहां के लोगों को भारतीय तत्वज्ञान की अद्भुत ज्योति प्रदान करते रहे।

अध्यात्म-विद्या और भारतीय दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जाएगा’ यह स्वामी विवेकानंद का दृढ़ विश्वास था। अमेरिका में उन्होंने रामकृष्ण मिशन की अनेक शाखाएं स्थापित कीं। अनेक अमेरिकन विद्वानों ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया। वे सदा अपने को गरीबों का सेवक कहते थे। भारत के गौरव को देश-देशांतरों में उज्ज्वल करने का उन्होंने सदा प्रयत्न किया। श्रद्धा सुमन अर्पित करने वालों में मुख्य रूप से रवि बाजपेई, विकास यादव, सरदार सिंदल सिंह, सरदार चरणजीत सिंह, अंकित मिश्रा, अर्जुन सिंह राजपूत, एन. एन. तिवारी व रामसरन मौर्या सहित अन्य लोग शामिल रहे।

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