पीड़ा की माया….

पीड़ा की माया….

पीड़ा को करके घनीभूत….!
करता मानव दुख को अनुभूत…
मानव मन का यह विचित्र स्वभाव
अनचाहे ही सहता रहता वह,
पीड़ा का प्रबल वेग-प्रवाह…
पीड़ा में ही मिलती है शायद…!
उसको सबकी सहानुभूति…
मानो मित्रों…. जग में….
दर्शन मानव जीवन का
है कुछ अद्भत….!
क्षण में ही कर देता सब विस्मृत,
क्षण में वह भाव क्लान्त…
क्षण में ही…. अधरों पर स्मित…
क्षण में ही वह अभिभूत,
क्षण में ही जैसे सद्यः प्रसूत…!
क्षण में वह सोच रहा होता…
सुख के दिन कितने अच्छे थे…
पर शायद… बेहद ही कम थे…
दुःख ने कराया यह अनुभूत…!
मन में उठते विचार.. अपने-आप..
धरा पर भाषित… सब पुण्य-पाप..
होते यहीं पर ही सब फलीभूत…
देखी उसकी सत्य प्रतीति…
कोई कहता है राख जिसे,
उसी को कोई कहता भूत-भभूत..
मानव मन का अंतर्विरोध…
विस्मय-बोध विषय है प्यारे…
जो पीड़ा को रख एक तरफ़,
हरदम अपना और पराया निहारे..
माया-ममता तो देखो मित्रों…
पीड़ा में वह कभी न होता स्वछन्द
फ़िर भी घेरे रहते उसको अंतर्द्वंद
कसकर जकड़े रहती है जग-माया
भले छूटने को हो जर्जर काया…
पीड़ा में यह भी देखा है अक्सर…
मन उसका पीछे से यह कहता,
व्यर्थ ही मैंने समय गंवाया…
मोह न भूला… ना भूली माया…
किया छल-कपट तो जीवन भर
पर जान सका ना हित-अनहित…
मन भीतर से अब यह चाहे…!
हर बन्धन को… कर तिरोहित…
खोज ही लूं अब धर्म पुरोहित…
रचनाकार—— जितेन्द्र दुबे
अपर पुलिस अधीक्षक
जनपद कासगंज।

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