जीवन सुधा (भाग-8)
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दोष गुण भाव सम रहते संसार में
सृष्टि रचना बनाई विधाता की है
जिसके आलोक से दूर होता तिमिर
ज्योतिमय ब्रह्म पद को नमस्कार है।
मूढ़ अनजान ज्ञानी त्रिविध रूप में
विधि की रचना में यह तीन प्राणी हुए
सुखसे ज्ञानी सरलता से अनजान जन
मूर्ख के पर गुरु क्यों न पैदा हुए?
हस्त को बांधें चाहे कमल दण्ड से
मानो मरुभूमि में कल्पवट जैसे है
मधु की एक बूंद से सिंधु मीठा करे
मूढ़ को ज्ञान देना कठिन वैसे है।
अग्नि के दाह को दूर जल से करें
सूर्य के ताप को रोक लें छत्र से
हस्त मदमस्त अंकुश के वश में सदा
श्वान गर्दभ हो वश दण्ड के शस्त्र से।
पान कर ले विषम विष भले ही कोई
प्राण बच जाते हैं उसके उपचार में
सारे कष्टों की औषधि बनी है भले
मूर्खों की कोई औषधि न संसार में।
मीन का अरि अनायास मछुआरा हैं
मूढ़ खल होते रिपु सज्जनों के सदा
है हिरण शत्रु आखेट कारण बिना
वैर होता अनायास क्यों सर्वदा।
सर जलज बिन व यौवन ढली रूपसी
दिन उजाले में धूमिल हो जैसे शशी
धन का लोभी नृपति कष्ट में साधु हो
शोभा पाते नहीं ए जगत में कभी।
केश सित मुख की आभा चली जाती है
आयु ढलती तो यौवन न रह पाता है
हाथ में दण्ड काया शिथिल होती है
आशा तृष्णा का यौवन नहीं जाता है।
मित्र कपटी तथा नारि हो कर्कशा
राजमन्त्री हो सठ सेवा कुलहीन की
कन्या विधवा तथा मूर्ख सुत यदि रहे
काया जलती सदा ही बिना आग की।
रचनाकार- डा. प्रदीप दूबे
(साहित्य शिरोमणि) शिक्षक/पत्रकार