Article: मड़ई महिमा

मड़ई महिमा

हमारी कृषि प्रधान व्यवस्था और
ग्रामीण संस्कृति में….!
मड़ई को भला कौन नहीं जानता
सरपत, गन्ने के छिलके,
बांस-बबूल से बनी यह संरचना
एक पलिया और दो पलिया
दोनों तरह की होती है….
एक पलिया मड़ई…..!
मकान की दीवाल के सहारे….
टिकी हुई और उपली, ईंधन,
पुआल, भूसा, अनाज के लिए तो
दो पलिया मड़ई के उपयोग की
सीमाएं अनंत होती हैं….!
मड़ई गरीबों का बैठका होती है
अमूमन दिन भर बीड़ी फूँककर,
बीच-बीच में रस-दाना करते
आनंदमय मजदूरों की टोली….
शाम तक मड़ई तैयार करती है
फिर होता है पास-पड़ोस में
ष्मड़ईष् उठाने का बुलावा….!
संगठन की शक्ति और
सामाजिक जुड़ाव के एक रोचक,
बेहतरीन दृश्य के साथ ही
समेकित स्वर का उद्घोष कर
ष्मडईष् को थून्ही, बड़ेर और
खंभे में रस्सी से बाँधकर
स्थिरता दी जाती है…..
इसी ष्मड़ईष् में गुलजार होती है
गर्मी की दोपहरी….
दहला पकड़ और ट्वेन्टी नाइन से
जाड़े की ठंड आग के कौड़ा और
रमई काका के गुड़गुड़ हुक्के से…
इस मड़ई में इधर-उधर अक्सर
दिख जाती है नीम की दातून,
बीड़ी का पैकेट, खैनी की पुड़िया,
चिलम और माचिस की डिबिया,
कहीं किसी किनारे हंसिया और
गोदोहन का छन्ना और
बछड़े की बाँस वाली ढरकी…
मतलब ग्रामीण लोकाचार के
अच्छे-बुरे सभी अवयव….!
इसी मड़ई के चारों तरफ
थून्ही के सहारे पूरी मड़ई पर…!
लगभग पूरे साल लगा रहता है
सेम,कोहड़ा,लौकी या नेनुआ
जिससे आबाद रहता है….
पूरा का पूरा मोहल्ला…..!
यही ष्मडईष् पशुओं के लिए भी
धूप, गर्मी, जाड़ा और
बरसात में वरदान होती है …
मड़ई का कोई भी वर्णन अधूरा है
जब तक कि मड़ई में रखे
तखत-बिस्तर और
उसके आसपास खेलते-कूदते
मोहल्ले के बच्चे, बाल-गोपाल
और चार-छ पिल्लों के साथ
बार-बार दस्तक देती
कुतिया की बात ना हो…..!
जिसे इस बात का एहसास और
विश्वास होता है कि
चाहे कुछ भी हो…..
मेरी संतति मड़ई और
इसके आस-पास सुरक्षित ही रहेगी
हमारे गाँव देश में मड़ई…..!
जीवन का आधार है और
इस मड़ई से हम सबको
बहुत ही प्यार है……
सच है कि मड़ई की महिमा
बहुत ही बड़ी है….
पर अफसोस की बात है मित्रों…
विकास के इस दौर में…
ष्मड़ईष् के सामने भी,
उसके अस्तित्व की ही
चुनौती खड़ी है…..!
मड़ई के सामने भी,
उसके अस्तित्व की ही
चुनौती खड़ी है…..!

रचनाकार- जितेन्द्र दुबे
क्षेत्राधिकारी नगर, जौनपुर।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Read More

Recent