कैसी ये कमाई है…?

कैसी ये कमाई है…?

मेहनत करके पद पाया,
पाई इज्जत और प्रतिष्ठा….
सुरूर चढ़ा कुछ ऐसा मन में,
बलवती हुई… दबी सब ईच्छा…
भूल गया सब मान-मनौती,
भूला सब देवी-देवता….
भूल गया था यह भी कि….!
सब होती है प्रभु की ईच्छा….
याद रहा बस इतना भर कि….!
मैंने तो है पास करी… कठिन परीक्षा..
भूल गए सब साथी-संघाती,
भूल गए सब जन देहाती….
भूल गए सब ताल तलैया… और…
भूली गाँव की सगरी गलियाँ….
कुछ दिन में चाचा-चाची भूले,
आगे चलकर सब भौजइयाँ….
भगिना-भगिनी और भतीजे तो,
कबहुँ ना लग पाए मेरी छतियाँ….
विद्यालय की बेंच भी छूटी
जिस पर पड़ती थी….कभी….!
गुरुवर की…. बेतों वाली छड़ियाँ….
खुद ही गढ़कर परिभाषा,
भूला सब गाँव देश की भाषा…
दुआ-सलाम और आशीषों का तो…!
बंद हुआ सब दरवाजा….
कुछ ऐसे ही रौब-दाब में….
बसन्त पार हुआ जो बासठ का….
मोह भंग हुआ झटके से… फिर तो…!
चित्र उभर आए मन में,
गाँव के सूखे रहे बरगद के….
याद आ रहे थे अब दिन बचपन के,
गुल्ली-डण्डा वाले दीवानेपन के….
तितली-भौरा, कौआ-चिरई, तोता-मैना
कोयल और मयूर… सब जो….!
हो गए थे मुझसे…. बहुत ही दूर…
याद सभी अब अनायास ही आते,
झट आँखों से आँसू ढर जाते
सच कहूँ तो मित्रों….
मन कोसे…. मन कोंचे…!
ख़ुद से पूछे यह बारम्बार….
क्यों संबंधों को रखा ताख पर….
क्यों कुर्सी को ही….!
बस निहारा आँख भर…..
शायद इसी मोह में मैंने,
अपनी माटी खुद ही गँवाई है….
आज बचा संग में मेरे…. अब तो….!
बस मेरा मैं और मेरी तन्हाई है….
और तो और दुआ में… इस अभागे को
मिलती बस रुसवाई है….
और कहूँ क्या मैं मित्रों तुमसे….
ख़ुद ही समझो…. विचार करो…
जीवन की कैसी ये कमाई है….?
जीवन की कैसी ये कमाई है….?

रचनाकार——जितेन्द्र दुबे
अपर पुलिस उपायुक्त, लखनऊ

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