आज भी याद है…..
आम गाँव के छोर पर…
एकदम वीराने में…
अकेले खड़े आम के पेड़ में
आये बौर देखकर… आज भी…
मन चाहता है कि… इसमें…
टिकोरे जल्दी आ जाएं..
और मैं बचपन में चला जाऊँ…
कच्छा-बनियान में जाकर…
ढेर सारे आम तोड़ लाऊँ…..
चाहे पत्थर से या लबेदा से…
साथ ही यह भी चाहता हूँ कि….
लाठी लेकर दौड़ा ले मुझे,
आम के पेड़ का रखवाला…
कत्तई न माने वह मुझको…
सीधा-सादा या भोला-भाला…
उसकी दिल को लगने वाली…
गालियाँ भी सुनना चाहता हूँ….
देखना चाहता हूँ…. फिर से….
उसको गुस्से में लाल-पीला.. पर…
हर हाल में आम तोड़ना चाहता हूँ
दाल में… चोरी-छिपे तोड़े गए..
इसी आम की ही… मोहक और…
सोंधी खुशबू चाहता हूँ… साथ में..
इसकी झन्नाटेदार चटनी चाहता हूँ
आम आएगा या नहीं… या फिर…
लबेदा खुद ही अटक जाएगा,
यह भी देखना चाहता हूँ….
बचपन की कई बुरी आदतों का,
साक्षी रहा यह आम का पेड़…
यहाँ हमने मिलकर चोरी करी,
झूठ बोला, समय बरबाद किया,
नमक मिर्च भी लगाया….
गंदी गालियाँ भी सीखीं,
तार-बाड़ी फाँदकर.. जबरदस्ती..
बागीचे में कूदना भी सीखा…
मित्रों इस वीराने वाले पेड़ तले…
कई सुनहरे पल भी बीते,
कई सुनहरी यादें हैं…
इसी पेड़ के नीचे हा-हा, ही-ही
मान-मनौअल और गुल्ली-डण्डा..
शिद्दत से याद आते हैं…
इसी पेड़ के आम बटोरे… हम…
चोरी से… भौजाई तक पहुँचाते थे
इसी बहाने कोने-अँतरे हम भी,
भौजाई से मिल आते थे…
कसम से.. अच्छी-बुरी.. सब बातें..
आज भी मुझे याद हैं…
शायद इसीलिए मित्रों….!
इसकी छाया तले मैं… फिर से
दोपहरी बिताना चाहता हूँ…
वहीं लकड़ी-पत्ती बटोरकर,
आग में भुने आम का…!
खट्टा-मीठा पन्नारस चाहता हूँ…
कभी तोते की जूठन वाला…तो …
कभी डाल से गिरी…
पकी हुई कोपल चाहता हूँ…
क्या बताऊँ मित्रों…आज भी…
गर्मी की छुट्टियों में
इस आम के पेड़ के नीचे,
बचपन में बिताया हुआ,
आनन्द का पल चाहता हूँ….!
बचपन में बिताया हुआ,
आनन्द का पल चाहता हूँ….!
रचनाकार——जितेन्द्र दुबे
अपर पुलिस अधीक्षक
जनपद-कासगंज
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