आंगन और आंगन की तलाश
हमारे गाँव देश के…..
कच्चे घरों में…..आँगन….!
खुली हवा का…और…
प्रकाश का स्रोत होता था….
जाड़े में धूप सेकने की जगह,
धान-गेहूँ या पापड़-चिप्स
फैलाकर सुखाने की जगह होता,
कार-परोजन में….
महिलाओं के गाने-बजाने,
उत्सव मनाने की जगह होता था
पर आँगन, इन सबसे अलग और
आनन्ददायक जगह होता था….
बच्चों की किलकारी, मुस्कान
ठुमकती-चुलबुली चाल,
करधनी के घुँघरू की आवाज
और उनकी बाल लीला के लिये
मालिश के दौरान चहकना,
कजरौटे का काजल पोत लेना
आँगन में काठ की…..
तिपहिया गाड़ी चलाना,
बारिश में गिरना-फिसलना,
विवाह मण्डप के बांस के सहारे
चारों ओर घुमरी घूमना….
हाथ से चुपड़ी रोटी छीनकर
कौवे के ले जाने पर
जिद कर आँगन में लोटना-पोटना
माँ के कहने पर डंडा लेकर
सूखते धान-गेहूँ से
चिड़ियों को भगाना…..
शाम होते ही गोद में बैठकर
दादी से राजा-रानी,तोता-मैना की
कहानी की जिद करना….
चंदा मामा से दूध भात खाना,
चाँद पर बुढ़िया माई और
उसका चरखा देख लेना….
उड़ती जहाज और पतंगों को
बुलाना-निहारना और ललचना….
तितलियों के संग खेलना-कूदना,
परछाई से डरना-हँसना-बोलना…
इन सब का और
घरवालों के आह्लाद का
साक्षी होता था….आँगन…!
पर अफसोस…अब तो आँगन भी
कंक्रीट से ढलकर लॉबी हो गया है
बचपन की हरकतों पर
आज का नया कल्चर
हावी हो गया है….
दादा-दादी वृद्धाश्रम में तो
बचपना क्रेश में बीत रहा है….
तोता-मैना, राजा-रानी की जगह
मोबाइल गेम और कार्टून चैनल
घर-घर की कहानी हो गया है….
आँगन के मण्डप तो
टीन-कनस्तर में आ गए हैं…
बच्चों का काजल अब दीवार और
माँ के कपड़े गंदे कर रहा है…..
घरों का रंग-रोगन बिगाड़ रहा है
और तो और….इस जमाने में…
लोग इसको ही विकास कह रहे हैं
पर सच बताऊँ मित्रों…..
हम तो फिर से हर घर में,
आँगन की तलाश कर रहे हैं….
हम तो फिर से हर घर में,
आँगन की तलाश कर रहे हैं…
रचनाकार—— जितेन्द्र दुबे
अपर पुलिस अधीक्षक
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