ज्ञान सुधा (भाग 38)
यौवन उत्तम कर्म नहिं, आस जरा कर ताहिं।
आगि लगै गृह कूप खनि, जड़ता सम कछु नाहिं।।
सोइ मानव इन्द्रिय सोइ, नाम काम बुधि सोइ।
सोइ धनविरहित गति अपर, जीवन नीरस होइ।।
तप्त भानु खल्वाट विधि, ताल विटप महिं जाइ।
गिरत महाफल तासु शिर, भाग्यहीन गति पाइ।।
जल तरंग सम जीव गति, तड़ित मेघ सम भोग।
जीवन नश्वर जगत महं, क्यों नहिं जानत लोग।।
स्वाति सीप राजीव पुट, लौह तपत जल सोइ।
मोती उदक अदृश्य पुनि, संगति कर फल होइ।।
विटप काठ जो रहै किमि, हेम रजत गिरि वास।
नीम कुटज परिमल विटप, मलयागिरि कर पास।।
क्षमाशील निर्लोभ सत, यज्ञ धर्म शुचि दान।
सेवहिं सज्जन सुमति नित, धर्म पन्थ करि जान।।
दिवस कर्मरत जो रहै, सुखमय रजनी होइ।
आठ मास उद्योग रत, पावस सुखप्रद सोइ।।
पाप आचरण रत सदा, भोगत फल भवकूप।
पुण्य कर्म अनुरूप सुख, लहत चतुष्टय रूप।।
विप्र नारि गो स्वजन पर, प्रकटत निज बल रोष।
फल पाके द्रुम बिलग जिमि, नाश सरिस नृपदोष।।
गो द्विज वनिता वृद्ध शिशु, अरु शरणागत होइ।
ध्येय रहित पूजित सदा, कष्ट देइ अघ सोइ।
ब्राह्मण सेवा न्यायरत, शुचि स्वभाव गुण कर्म।
स्वजन तुष्टि चिर अवधि तक, सेवत राजहिं धर्म।।
रचनाकार- डॉ. प्रदीप दूबे
(साहित्य शिरोमणि) शिक्षक/पत्रकार