ज्ञान सुधा (भाग-36)
धन पुनि जाया सुहृद पुनि, सम्पति पुनि पुनि होइ।
दुर्लभ मानुष देह है, फिरि-फिरि मिलै न सोइ।।
व्याधि विपति धनहीनता, बन्धन दुख कर मर्म।
विटप अधर्महिं तासु फल, पावत जैसहिं कर्म।।
वारि तेल सुधि ज्ञान अरु, पात्र दान खल मर्म।
वस्तु शक्ति अनुरूप सब, विस्तारहिं निज धर्म।।
बल समूह उत्तम सदा, कार्यसिद्धि सुख कन्द।
घन वर्षा जलधार ज्यों, विफल होत तृन वृन्द।।
सेवित मध्य नृपति सदा, वनिता गुरूहिं कृसानु।
निकट नाश कारण बनै, दूरहिं निष्फल जान।।
अनल नीचनर नारि नृप, अस्त्र शस्त्र अहि वारि।
अष्ट सजग सेवित सदा, मृत्यु सरिस भयकारि।।
निज गुण कर्महिं पूज्य नर, पद वर पूज्य न कोइ।
राजमहल शिखरहिं बसै, काग गरूड़ नहि होइ।।
नहिं कोउ देखा नहिं बना, कनक कुरंग न होइ।
आगत काल विनाश जब, बुधि विपरीतहिं होइ।।
नृप वनिता सेवक सचिव, प्रकृति चार वाचाल।
प्रजा स्वामि भूपति सदा, पावत दुख तिहुं काल।।
जौ उत्तम जीवन चहत, शुचि संग्रह उपभोग।
धर्म वित्त सदगुरु वचन, धान्यहिं औषधि रोग।।
धेनु सहस बिच वत्स ज्यों, सहज मातु पहिं जाइ।
वैसहिं जन कृत कर्म फल, कर्ता बिनु श्रम पाइ।।
दहत जनहिं संसर्ग ते, वन दुख एकल मर्म।
नहिं सुख कानन जन नहीं, अनवस्थित कृत कर्म।
रचनाकार- डॉ. प्रदीप दूबे
(साहित्य शिरोमणि) शिक्षक/पत्रकार
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