परिवार
ज्ञान सुधा
परिवार से बड़ा धन जग में कोई नही है।
हो प्रेम भाव सबमें फिर स्वर्ग सुख यही है।।
बन्धन ये प्रेम का जो मिलकर संवारना है।
परिवार को संजोना सौ बार हारना है।।
अपनो से हारना भी एहसास जीत का है।
परिवार को संजोना श्रृंगार गीत का है।।
रवि की किरण से जैसे चहुंओर ओर कान्ति होती।
परिवार एक ठिकाना जहां प्रेम शान्ति होती।।
संसार में बहुत हैं जो सुख में साथ देते।
परिवार साथ है जो सुख-दुख हैं बांट लेते।।
निज स्वार्थ में पड़े जब परिवार टूटते हैं।
परिणाम यह दुखद है अपने ही छूटते हैं।।
गैरों के पीछे पड़कर अपना बना रहे हैं।
जो स्वार्थ पर टिके हैं उनको मना रहे हैं।।
मन में कपट की गठरी छल द्वेश से भरे हैं।
बाहर से खुशनुमा पर भीतर से जल रहे हैं।।
पर गेह से जो आई जाया की है ये माया।
पति रूप मोह भंग शर लीला न जान पाया।।
सुत नारि वित्त कारण परिवार टूटने का।
बस अक्ल की कमी है अपनों से रूठने का।।
गर्भस्थ जीव होता विधि पंच ये लिखित है।
धन आयु कर्म विद्या संग मृत्यु भी नियत है।।
हो राज सब भुवन में, धन से हो खूब नाता।
जब मौत आती सन्मुख, नहिं कोई काम आता।।
अपनो को प्रेम देकर निज गेह को संजोना।
यह थ्येय हो सभी का जीवन सफल बनाना।।
( दोहा)
आंधी क्रोध समान दोउ, तेहिं क्षण होत न ज्ञान।
शान्त भये दोउ तब दिखै, होत हानि कर भान।।
रचनाकार- डा. प्रदीप दूबे(साहित्य शिरोमणि) शिक्षक/पत्रकार
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