साइकिल संस्मरण….
बचपन में बड़ी लालसा होती
साईकिल छूने की…..
साईकिल के पीछे-पीछे दौड़ने की,
स्टैंड पर खड़ी साइकिल का
हाथ से पैडल चलाने की…..
साईकिल की निकली हुई रिम,
डण्डे से दौड़ाने की…..
पिताजी की साइकिल पर बैठकर,
बिना बात के घंटी बजाने की….
चोरी-चोरी कैंची चलाना,
सीख जाने की….. और… जल्दी से
साईकिल की सवारी करने की
इतना ही नहीं… विवाह में भी….
बाजा-घड़ी-अंगूठी के साथ,
साईकिल की ही लालसा होती…..
मित्रों साइकिल चलाना,
सीख जाने के बाद खुद-ब-खुद
हमारी जिम्मेदारियां बढ़ जाती….
रोजमर्रा के सामान लाने में,
बस स्टैंड तक लोगों को छोड़ने में,
गेहूँ पिसवाने तक की जिम्मेदारी
हमारी ही होती है…..
यह सब तो ठीक था…. पर….
अफसोस इस बात का होता कि
स्कूल जाने के लिए साइकिल,
कभी-कभार ही मिल पाती…..
पर मित्रो… जब कभी साइकिल…
मिल जाती तो….!
हम फूले नहीं समाते,
मित्रों को ललचाते हुए,
साईकिल चलाने का हुनर….
कौशल दिखाते-इतराते हुए,
मगन होकर स्कूल जाते….
क्या बताऊँ मित्रों…..
मान-मनौअल से,
साईकिल तो मिल जाती….पर….
स्टैंड की फीस नहीं मिल पाती…
चोरी से, बिना टोकन… स्टैंड में…
साईकिल खड़ी कर दी जाती……
पूरी कक्षा के दौरान…. मन….
साईकिल पर ही लगा रहता….
कोई गिरा न दे, कोई चुरा ना ले,
बस यही चिंता बनी रहती……
चलाने को साईकिल न मिलने पर,
कभी-कभार कक्षा से बंक मारकर
मित्रों की ही साइकिल,
हम चला लिया करते थे….
कभी-कभी किराए पर लेकर,
आनन्द ले लिया करते थे….
मित्रों साइकिल तो……
बचपन से ही हमें प्यारी है
साइकिल से बहुत अच्छी यारी है
कारण बताऊँ मित्रों….!
साइकिल चलाने की लालसा ने
हमें गतिशील बनाया है……
जाने अनजाने में ही,
तमाम जिम्मेदारियों को बताया है,
संघर्षों से रूबरू कराया है….
कुछ नया सीखने की प्रेरणा दी है,
मन में चंचलता का….!
व्यवहार सँजोया है……
किसी चीज को पाने के लिए,
हरदम बेताब और बेचैन
रहना सिखाया है…..
मित्रों और क्या कहूँ….?
जीवनपथ में यही तो मोह-माया है
इसके बारे में हमें साईकिल ने…!
बहुत सरल ढंग से सिखाया है….
रचनाकार—— जितेन्द्र दुबे
अपर पुलिस अधीक्षक
जनपद-कासगंज
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