आखिर नासमझ कौन है?
किसी का विश्वास पाने को,
नमक मिर्च लगाकर,
मैं दूसरों की बुराई कर लेता हूँ….
बेवजह आनन्द की खोज में,
भीड़ में बैठकर दूसरे की
बुराई भी सुन लेता हूँ….
चतुराई से झूठ भी बोल लेता हूँ
यह भी जताना जानता हूँ कि
मैं सच ही बोल रहा हूँ….
आप इसे यह भी कह सकते हैं कि
मक्खन लगाने में….मैं उस्ताद हूँ
मैं अपने नकारापन की….
सार्थकता दिखाने में सिद्धहस्त हूँ
लोगों से अलग अपनी उपयोगिता
सिद्ध करना जानता हूँ….
लोगों की भीड़ में,
खुद के पसीने के बजाय,
उनका पसीना पोछना जानता हूँ..
कैसे रहा जा सकता है
उनकी अँगूठी का नगीना
मुझे अच्छे से पता है….
उनकी खुशी क्या है, चाहत क्या है
यह मैं बहुत करीब से जानता हूँ…
वे नाराज हैं या खुश,
मैं उनका मिजाज जानता हूँ….
मैं लोगों की कमियाँ ढूँढने में
अभ्यस्त हूँ ….खुरपेंच के….
कायदे-कानून भी जानता हूँ….
देशकाल-वातावरण के अनुरूप
योग्यतम की उत्तरजीविता का
सिद्धांत भी…बखूबी समझता हूँ..
और बुद्धि-विवेक के अनुसार
समझाने का प्रयास भी करता हूँ..
पर मित्रों….विडंबना यह है कि
वे तो…मुझे पसन्द करते हैं…
किंतु लोगों की निगाहें
मुझे हमेशा घूरती रहती है..और..
मैं खुद को इस काबिल नहीं पाता
कि यह जान सकूँ कि….
जमाने के दस्तूर के मुताबिक
चलना ठीक है…या फिर
परम्परा के अनुरूप…..और….
यह भी नहीं समझ पाता हूँ कि
आत्ममुग्धता के दौर में
आखिर नासमझ कौन है….!
आखिर नासमझ कौन है….!
रचनाकार- जितेन्द्र दुबे
अपर पुलिस अधीक्षक/क्षेत्राधिकारी नगर जौनपुर।