आखिर क्या कारण है कि हर चुनाव में नेता जीतता है और जनता हार जाती है?

आखिर क्या कारण है कि हर चुनाव में नेता जीतता है और जनता हार जाती है?

क्योंकि भ्रष्टाचार, असमानता, गरीबी, बेरोजगारी, कृषि का पिछड़ापन जैसी समस्याएं अभी भी हैं
जनतंत्र एवं मीडिया दोनों के लिए जनता अर्थात लोग ही केंद्र में होते हैं। जनहित को बढ़ावा देना और नागरिक सशक्तिकरण दोनों का उद्देश्य होता है। किसी भी देश की जनतांत्रिक व्यवस्था एवं शासन प्रणाली में मीडिया सजग प्रहरी की भूमिका में होती है। लोकतंत्र और मीडिया दोनों एक-दूसरे के पूरक होते हैं। इनमें से किसी एक का संतुलित व्यवहार दूसरे को स्वमेव ही स्वस्थ एवं संतुलित रखता है। 75 वर्षों से भारत में लोकतंत्र सफलतापूर्वक विद्यमान है जिसमें मीडिया ने बड़ा योगदान दिया है। मीडिया की पहुँच गाँव, शहर, दफ्तर, घर, उत्सव, दंगे प्रत्येक जगह होती है। अपने दायरे में रहकर मीडिया ने छोटे-बड़े भ्रष्टाचार के बहुत से मामले उजागर किये हैं। देश में नेताओं, अधिकारिओं एवं आमजन में कर्तव्य भावना का संचार किया है किन्तु कुछ संदर्भों में जैसे-देश की आंतरिक जनसमस्याओं को छोड़कर गैर जरूरी अथवा अप्रासंगिक मुद्दों पर लाइव डिबेट आयोजित करना मेन स्ट्रीम मीडिया की सामान्य प्रवृत्ति बन गयी है। साथ ही जनांदोलनों को पर्याप्त कवरेज प्रदान न करना, चुनावों में सांप्रदायिक दृष्टिकोण उत्पन्न कर देने की कला, किसी प्रायोजित मुद्दे को कई दिनों तक प्रसारित करते रहना, जरूरी खबरों को छोड़कर अन्य प्रायोजित मुद्दों/मंचों को लाइव दिखाना इत्यादि गतिविधियां मीडिया की मूल कर्तव्य भावना एवं निष्पक्षता पर प्रश्नचिन्ह लगाती हैं जिससे मीडिया का यह दृष्टिकोण प्रेस की स्वतंत्रता के बजाय स्वछंदता के रूप में परिवर्तित होता हुआ दिखने लगा है। उदाहरण के लिए 13 दिसंबर 2023 को संसद भवन के अंदर घुसकर कुछ युवकों ने बेरोजगारी, महंगाई, मणिपुर हिंसा इत्यादि व्याप्त समस्याओं के विरोध में प्रदर्शन करने का प्रयास किया। उन लोगों के आन्दोलन का यह तरीका सुरक्षा कारणों से नकारात्मक था। साथ ही असंसदीय भी था। विचारणीय है कि मीडिया ने इस मुद्दे में बेरोजगारी, महंगाई, मणिपुर हिंसा इत्यादि समस्याओं पर चर्चा न करते हुए बेरोजगार युवक-युवतियों को आतंकवादियों की तरह प्रसारित व प्रचारित करने वाली खबरें दिखाने लगा। आजादी के बाद से देश में ऐसे बहुत से उदाहरण हैं। आंदोलन के उग्र अथवा नकारात्मक होने की आलोचना किया जाना आवश्यक है किंतु मीडिया द्वारा आंदोलन के आलोचनात्मक पक्ष को ही प्रमुख बनाना और मुख्य मुद्दे को दबाना या गौण बनाना लोकतांत्रिक नहीं कहा जा सकता है। इन परिस्थितियों में मेन स्ट्रीम मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अपने मुख्य कर्तव्य व भूमिका में कहां तक जनतांत्रिक व्यवस्था को प्रासंगिक व सुरक्षित बना रहें हैं? इस विषय पर चर्चा क्या अब समय की मांग है? राज्य के चौथे स्तम्भ के उद्देश्यों के अनुरूप निष्पक्ष भाव से जनतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करना मीडिया का प्राथमिक दायित्व है। रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स द्वारा जारी विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत की निम्न रैंकिंग चिंतनीय है। वर्ष 2023 में जारी आंकड़ों के अनुसार 180 देशों की सूची में भारत की रैंकिंग 161 वें स्थान पर है। वर्ष 2022 में भारत की रैंकिंग 150 थी। यह रैंकिंग 5 संकेतकों-राजनीतिक संदर्भ, कानूनी ढांचा, आर्थिक संदर्भ, सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ और सुरक्षा के आधार पर प्रदान की जाती है। इसके लिए 0 से 100 तक अंक निर्धारित किया गया है। वर्ष 2023 में भारत का स्कोर 36.62 है। भारतीय मीडिया की कार्यप्रणाली में सुधार की आवश्यकता है। मीडिया को व्यक्ति पूजा और दलीय भक्ति में संलिप्तता वाले दृष्टिकोण को त्याग कर जनतांत्रिक मूल्यों और जन सेवा को बढ़ावा देना चाहिए जिससे व्यक्ति, समाज और देश मजबूत होता है। आखिर क्या कारण है कि हर चुनाव में नेता जीतता है और जनता हार जाती है? क्योंकि भ्रष्टाचार, असमानता, गरीबी, बेरोजगारी, कृषि का पिछड़ापन इत्यादि समस्याएं अभी भी बनी हुई हैं। भारतीय संविधान द्वारा प्रदत मूल अधिकारों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (अनुच्छेद -19) सबसे महत्वपूर्ण है, जिसके अंतर्गत प्रेस की स्वतंत्रता भी समाहित है। इस मूल अधिकार के व्यापक उद्देश्यों में यह शामिल नहीं है कि मीडिया केवल व्यावसायिक दृष्टिकोण और सरकार/सत्ता के अनुकूल व्यवहार करे। मीडिया में व्याप्त संकीर्णता, एकपक्षीय दृष्टिकोण से कुतर्क, मूल मुद्दों से ध्यान भटकाने वाली खबरों पर जोर देना इत्यादि नकारात्मक प्रवृतियां लोकतांत्रिक व्यवस्था को कमजोर करती हैं। लोकतंत्र में राजनेता एवं आम नागरिक सभी की गरिमा और अधिकार बराबर होते हैं। व्यक्ति पूजा अथवा महामानव की अवधारणा लोकतंत्र के लिए खतरा है और यह अधिनायकवादी शासन प्रणाली को बढ़ावा देता है। लोकतांत्रिक मूल्यों जैसे: स्वतंत्रता, समानता, न्याय, नागरिक अधिकार, धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक व आर्थिक न्यायपूर्ण व्यवस्था इत्यादि की सुरक्षा के लिए मीडियाकर्मियों की भूमिका चौकीदार की तरह होती है। राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्था में जन नियंत्रण, पारदर्शिता, अधिकार और नागरिकता की अवधारणा जैसे विषयों पर विमर्श की आवश्यकता है, क्योंकि इन्हीं तत्वों से मीडिया में भी सकारात्मक सुधार संभव है। मीडिया लोकतंत्र में महत्वपूर्ण एवं मजबूत स्तंभ होता है। जिस देश में प्रेस की स्वतंत्रता के बावजूद प्रेस सत्ता की भाषा बोलने लगता है अथवा एकपक्षीय होने लगता है तो उस देश में राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और लोकतांत्रिक व्यवस्था को फेल होने में बहुत देर नहीं लगती है। जैसे— म्यांमार, पाकिस्तान, इत्यादि देश इसके उदाहरण हैं जहां सत्ता के दबाव अथवा सेंसरशिप से मीडिया कमजोर हुई और अंततः लोकतांत्रिक मूल्यों का ह्रास हुआ है। मीडिया ही जनमत निर्माण एवं जन जागरूकता का सशक्त साधन है। जनसंख्या के आधार पर बड़े देशों में लोकतांत्रिक व्यवस्था को चलाने के लिए राजनीतिक दल अनिवार्य हैं। प्रत्येक राजनीतिक दल की अपनी विचारधारा और समर्थकों का समूह होता है जिसके आधार पर वह समस्याओं के समाधान का दावा करते हैं। राजनीतिक दल अथवा संगठन बनाना प्रत्येक भारतीय नागरिक का मूल अधिकार (अनुच्छेद-19) है किंतु देश की आजादी के बाद भारत में अपने संगठनात्मक आधार विस्तृत करने के लिए राजनीतिक दलों द्वारा संप्रदायवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद, जातिवाद और अपराधियों को चुनाव लड़ाना (राजनीति का अपराधीकरण), नोट के बदले वोट जैसे नकारात्मक साधनों का अत्यधिक प्रयोग किया गया है।राजनीतिक दलों की इन नकारात्मक गतिविधियों को देश में व्याप्त गरीबी, अशिक्षा, अभाव, भय, भूख, भ्रष्टाचार और जागरूकता की कमी ने ऊर्जा देने का काम किया है। यह नकारात्मक गतिविधियां निरन्तर जारी हैं जिन पर मीडिया सकारात्मक कार्य कर सकती है। 21वीं सदी के दो दशक बाद भले ही साक्षरता दर बढ़ी है किन्तु शिक्षित लोगों की संख्या आज भी बहुत कम है जबकि साक्षर होने के साथ शिक्षित होना भी जरूरी था। हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में शैक्षणिक प्रतिष्ठान आज भी सभी साक्षर व्यक्तियों को शिक्षित (समझदार) नागरिक के रूप में प्रशिक्षित नहीं कर पा रहे हैं। विश्व के अन्य देशों की तुलना में भारत मानव विकास सूचकांक में बहुत पीछे है। अच्छा शैक्षिक परिवेश लोकतंत्र एवं मीडिया दोनों को सही दिशा में बनाये रखता है। मीडिया की सकारात्मक भूमिका जन जागरूकता को बढ़ावा देने के साथ ही लोकतान्त्रिक व्यवस्था को भी संतुलित व सशक्त आधार प्रदान करती है। इसके कारण राजनीतिक दलों की गतिविधियों में सकारात्मकता को बढ़ावा मिलता है और लोकतांत्रिक मूल्यों का सम्मान होता है। मीडियाकर्मियों को हेडलाइंस मैनेजमेंट वाले दृष्टिकोण से बाहर आकर वास्तविकता और निष्पक्षता से नागरिक अधिकारों और सुविधाओं का संरक्षण, संवर्धन और सशक्तिकरण करते रहना है जिससे हमारा देश और भी सशक्त बने।
डा. कर्मचन्द यादव
असिस्टेंट प्रोफेसर राजनीति विज्ञान विभाग
सल्तनत बहादुर महाविद्यालय बदलापुर—जौनपुर।

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