हम क्या ढूढ़ते हैं….?
गाँव-देश में.… आज भी लोग…
रिश्तो में मिठास दूँढते हैं…!
अपनों में… पुराना सा ही…
विश्वास दूँढते हैं…!
हों नजदीक भले लोग कई.. पर…
बुढ़ापे में औलाद से ही… हम सभी
सेवा-टहल की आस ढूँढते हैं….!
हममें से बहुतेरों को भले प्रिय हो,
काँटो भरा गुलाब… पर…
अब भी कुछ लोग हैं ऐसे…
जो फूलों में फूल पलाश ढूँढते हैं..
हो उजाला जिंदगी में भले भरपूर
पर… लोग मंदिर-मस्जिद जाकर..
जगमग प्रकाश ढूँढते हैं….!
जीवन भी एक अबूझ पहेली है
लोग रहते जमीं पर हैं…. पर…
हर पल आकाश ढूँढते हैं…!
विडम्बना देखो मित्रों…..
करम हमारे.. चाहे जो भी हों..
फल तो हम… झकास ढूँढते हैं…!
हों कितने ही ग्रहण… जिंदगी में…
पर… हम पुण्य के लिए…
हमेशा ग्रहण खग्रास दूँढते हैं..…!
यह भी सच है मित्रों…
बीमारियों से हताश होकर,
लोग हवा-बतास ढूँढते हैं…..!
समाज में स्वार्थ तो…. देख लो..
इतना हुआ प्रबल है कि… लोग…
मौका देखते ही खटास ढूँढते हैं..!
पढ़ाई-लिखाई का भी….
दौर है माशा-अल्ला…. सो….
टीचर भी अब जिज्ञास ढूँढते हैं
गंदगी कर रहे हैं समाज में
हम सभी… चहुँ-ओर… लेकिन….
हर कदम पर हम.. फर्राश ढूढते हैं
शेख़ी बघारते वक़्त..… अक्सर….
यही कहते हुए मिलते हैं लोग….
हम तो कफन का लिबास ढूढते हैं
यही जगत व्यवहार है मित्रों…!
नियम-कानून अपनी जगह… पर..
विचारों की अपनी जगह है… और
हम खुद ही तय करते हैं कि…
हम यहाँ क्या ढूँढते हैं…?
हम खुद ही तय करते हैं कि…
हम यहाँ क्या ढूँढते हैं…?
रचनाकार——जितेन्द्र दुबे
अपर पुलिस अधीक्षक
जनपद-कासगंज
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