परिवार व समाज के अभिन्न अंग वरिष्ठ नागरिक

परिवार व समाज के अभिन्न अंग वरिष्ठ नागरिक

आज के समय में वरिष्ठ नागरिकों व उनके हितों की रक्षा व क़ानून-सरकार का सम-सामयिक मार्गदर्शन व हस्तक्षेप अति आवश्यक हो गया था।
चारि पदारथ करतल जाके। प्रिय पितु मातु प्राण सम जाके॥
अर्थात् गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरित मानस में कहा है कि जो मनुष्य अपने माता- पिता को अपने प्राणों से ज़्यादा प्यार व सम्मान करता है उसे इस संसार में ईश्वर कृपा से सारे सुख उपलब्ध होते हैं।
हमारी प्रदेश सरकार ने पिछले दिनों वरिष्ठ नागरिक विधेयक 2007 को संशोधित करते हुये वृद्ध नागरिकों व अशक्त माता-पिता को अनिवार्य रूप से सहारा देने के लिए संतान व समाज को अनेक तरह से सख़्त हिदायतें दी हैं और उन्हें बाध्य किया है कि वरिष्ठ नागरिकों की हर तरह से उचित देखभाल की जाय व उन्हें संतानों एवं समाज के अन्य युवा वर्ग के द्वारा उचित सम्मान दिया जाय। साथ ही उनके साथ दुर्व्यवहार करने व मानसिक प्रताड़ना देने वालों को क़ानून के तहत सख़्त कार्यवाही की जाएगी।
ज्वलंत प्रश्न यह है कि आख़िर सरकार को क़ानून बदलने व सामाजिक सरोकार में क्यों हस्तक्षेप करना पड़ा? क्या हमारी सनातन सभ्यता व सांस्कृतिक परम्पराओं का पराभव इसकी वजह है, संयुक्त परिवार धीरे धीरे एकल परिवार में बदलते जा रहे हैं, यह भी वजह है या फिर आज का सामाजिक परिवेश आधुनिकतावाद व भौतिकतावाद की वजह से स्वार्थी व दिग्भ्रमित होता जा रहा है, आजकल की फ़िल्मों में, टेलीविजन सीरियल में व सोशल मीडिया में जो हिंसा, अनैतिकता, खुला यौनाचार व भोंडापन परोसा जा रहा है, उसका भी भरपूर कुप्रभाव समाज व संस्कृति पर न केवल पड़ता जा रहा बल्कि बढ़ता जा रहा है और यही सब सम्मिलित कारण हैं कि वरिष्ठ नागरिक, माता-पिता व बड़े-बूढ़े समाज में तिरस्कृत होते जा रहे हैं।
हमारी ग्रामीण परिवेश की प्राचीन परम्परा में बड़ों को प्रणाम करना, पैर छूना, उनके सामने बिना अनुमति लिए न बैठना, उनका हर तरह से सम्मान करना हम सबके स्वभाव में व हृदय में प्राकृतिक स्वरूप में मौजूद होता था परंतु शहरीकरण व भौतिकतावादी आधुनिकीकरण का भूत अपरिचितों की इस भीड़ भाड़ में इन सामाजिक व पुरातन सांस्कृतिक परंपराओं को जाने-अनजाने ह्रास की कुत्सिकता के गर्भ में डुबाता चला गया। आज हम न बुजुर्गों का सम्मान कर पा रहे हैं न उन्हें सहारा दे पा रहे हैं, क्योंकि स्वार्थ इतना अंधा हो गया है कि हमें अपनी सीमा और मर्यादा का भी ज्ञान नहीं रहा। आज अपने माता-पिता व पितामह के समान वरिष्ठ ज़नों को भी हम सम्मान देने में अपना खुद का पराभव समझने लगे हैं; किंचित् उन वरिष्ठ ज़नों को सम्मान देकर हम कतिपय न केवल अपना अपमान समझने लगे हैं, बल्कि शायद अपने को छोटा महसूस करने लगे हैं और जाने—अनजाने यही सबब उन वृद्ध नागरिकों की प्रताड़ना व तिरस्कार की वर्तमान की सम सामयिक वजह बनता जा रहा है परंतु समाज में कदाचित प्रबुद्ध ज़नो व विचारकों का किंचित प्रभाव अभी भी अवशेष है जिसकी वजह से शासन व सरकार को प्रचलित पुराने नियम व क़ानूनों में संशोधन करना वांछनीय हो गया, ताकि सामाजिक ताने-बाने में वरिष्ठ नागरिकों व बुजुर्गों की सम्मान की प्राचीन परम्परा एक धरोहर के रूप में संजो कर रखी जा सके। आशा ही नहीं, बल्कि पूरा विश्वास है कि समाज का ध्यान सरकार द्वारा संशोधित इन क़ानूनों का समुचित आदर होगा व हमारी प्राचीन भारतीय परम्परा व संस्कृति का समाज के द्वारा पूर्ण निर्वाह किया जाएगा।
आज फिर समाचार पत्र पढ़ने के बाद यह जिज्ञासा हुई कि इस विषय पर कुछ लिखूं। अतः अपने विचार प्रकट तो कर दिये। साथ ही युवा वर्ग से निवेदन है कि इसे अन्यथा न लें, क्योंकि यह कहने का मन हर एक वृद्ध जन को होता है, फिर चाहे वह एक सामान्य नागरिक हो या महान राजनेता।

से.नि. कर्नल आदिशंकर मिश्र
लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

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