अलगौझी पक्की हुई
बँट चुके थे पशुधन सारे,
बँट चुका था सब स्त्रीधन….
मेंड़ पड़ी थी सब खेतों में,
बँट चुके थे सब कमरे-ओसारे…
बँट चुके थे सब बर्तन-भड़वे,
बँट चुका था दुआर भी….पर…
माँ-बापू का हृदय तो देखो,
कम न हुआ था दुलार अभी….
उतने ही प्रिय थे नाती-पोते,
उतना ही प्रिय था आँगन का द्वार
भले बँटा था चूल्हा-चौकी…पर…
घटा कहाँ था किस्सों का व्यापार..
मान लिया था मतिभ्रम बच्चों का,
कर लिया था यह सब स्वीकार….
पर हृदय आज काँप उठा था,
उठ गई जब… आँगन में दीवार…
खत्म हुआ सबका मिलना-जुलना
खत्म हुआ आँगन का गुलजार….
किससे हम दोनों गलचौर करेंगे,
किससे करेंगे मान-चिरौरी…
किसको दिखायेंगे चंदा-मामा,
किसको खिलायेंगे रोटी-दाल…
दिन ऐसा भी आ जाएगा,
हम हो जायेंगे इतने लाचार…
कभी न ऐसा सोचा था कि,
शून्य का होगा इतना विस्तार…
डूब गए थे दोनों चिंतन में,
उठ रही थी हृदय में पीड़ा भारी…
तभी अचानक सामने आई,
माँ-बापू के भी बँटने की बारी…
विवश माँ-बापू यह सोच रहे थे
जग में हुई बहुत हँसाई….
रोकना चाहे दोनों बहुत…पर…
आँखे खुद-ब-खुद भर आईं…..
हो हताशमना… पूछा भगवन से
कमी रही कहाँ भगवन,
जो ऐसी गति हो आई…..
इधर बच्चों का मन तो देखो मित्रों
सब मिल-जुल कर बोल रहे थे,
मुबारक़ हो मेरे भाई….
अब जाकर अलगौझी,
पक्की हो पाई…..!
अब जाकर अलगौझी.
पक्की हो पाई……!
रचनाकार—— जितेन्द्र दुबे
अपर पुलिस अधीक्षक
जनपद-कासगंज।
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