नृप दीन्ह परिचय कहि मृषा कैकय नृपति मन्त्री कहे।
बन फिरत करत अहेर भूलेउ भाग्य बड़ दर्शन लहे।
मुनि कपट धरि उर कहेउ नृप तव दूर बहुत नगर अहे।
निसि बास करि आश्रम अपर दिन गमन निज राजहिं महे।।
होनी को न टारि सके बिधि जो लिखा लिलार
बुद्धि ज्ञान काल तहँ तैसे बनि जात है।
भ्रम वश नृप सठ तपसी को संत मानि
अरि पुनि नृप क्षत्रि छल हीं सुहात है।
राजसुख दुख हिय जरत अनल सम
बैर निज मन लिये हिय हरषात है।
कपटी कुटिल संत भयो नृप तासु बस
निज हित नृपति चरन परि जात है।।
रचनाकार: डाॅ. प्रदीप दूबे
(साहित्य शिरोमणि)
शिक्षक/पत्रकार।
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