ज्ञान सुधा (भाग-43)
प्राणि जगत दुख निरखि जो, दया द्रवित नित होइ।
जप माला चन्दन बिना, कह श्रुति साधुहिं सोइ।।
मित्र भृत्य दारा स्वजन, धनहीनहिं तजि देहिं।
धन सम्पति आवै जबहिं, पुनि सब आश्रय लेहिं।।
पंथ अधर्महिं विविध सुख, भूमि भवन सुख मूल।
शत्रु पराभव विजय बहु, पुनि तेहिं नाश समूल।।
अर्जित वित्त अधर्म विधि, अवधि वर्ष दस होइ।
बरष एकादश आवतहिं, नाश समूलहिं सोइ।।
मधुर वचन सम अमिय जग, जीव परम सुख देत।
बिनु पूंजी क्षति नाहिं कोउ, पीड़ा जन हरि लेत।।
राहु मरण कारन अमिय, भूषण विष गौरीश।
छुद्र कर्म परिणाम दुख, सत समर्पि सब ईश।।
गुण संयुत नर पूज्य जग, बरु तेहि वास कुवास।
कांच राखि सिर फिरै कोउ, महिमा रत्न न नाश।।
जीवन लघु शत पञ्च वय, शास्त्र विविध बहु जान।
हंस तजै जल क्षीर गहि, सुधि तैसहिं गहि ज्ञान।।
बहु बंधन संसार महं, प्रेम रज्जु सम नाहिं।
भ्रमर दारू भेदन निपुण, शयन कंज रति ताहिं।।
ज्ञानिहिं जन संसर्ग ते, गुण विकसत चहुं ओर।
हेम जड़ित अनुरूप गुण, रत्न विभूषित डोर।।
झुकै सदा जो पबि चढ़ै, देत जगत संदेश।
सोइ फिरि शैलहिं भूमि पर, प्रभुता प्रकटत वेष।।
दुर्जन कंटक सरिस दोउ, गुण अरु जाति स्वभाव।
मुखमर्दन उपचार एक, दूरि धरै निज पांव।।
संसृति कटु द्रुम अमिय सम, सदा मधुर फल दोइ।
सत संगति अरु प्रिय वचन, सुखद निरंतर सोइ।।
पुस्तक विद्या शस्त्र अरु, वित्त होइ पर हाथ।
काल प्रयोजन जब परै, निष्फल तीनहुं साथ।।
रचनाकारः- डॉ. प्रदीप कुमार दूबे
(साहित्य शिरोमणि)
शिक्षक/पत्रकार
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