ज्ञान सुधा (भाग-37)
विधि कुम्हार शिव पाणि पुट, विष्णु दसहिं अवतार।
दिनकर नभ महं भ्रमित नित, कर्म महाअसि धार।।
आलस वैरी जगत महं, कर्म सुहघ्द कर मर्म।
सुफल मनोरथ कर्मरत, शुचि यह जीवन धर्म।।
हस्त दण्ड लै नहिं निरखि, पशुपालन सम तेहिं।
देव सहायक होत जेहिं, मति शुचि तेहिं करि देहिं।।
तब शुभ कर्महिं रत मनुज, सिद्धि मनोरथ ताहिं।
अर्थ मनोरथ कामना, सफल ते संशय नाहिं।।
दारूण दुख प्रभु देत जेहिं, मति ताकहं हरि लेत।
हिय अनीति कर वास जहं, दृष्टि जाइ नहिं देत।।
द्यूत पराभव सवति दुख, भारवहन कर जोइ।
निशा कष्ट तीनहुं सरिस, न्याय विरत नृप होइ।।
सज्जन खल संग नहिं तजै, पावत दण्ड समान।
शुष्क काठ संग रहि जरै, आद्र काठ निज प्रान।।
वणिज दस्यु रिपु नर्तकहिं, हस्त रेख विद्वान।
द्यूत कर्म रत वैद्य जो, तिन्ह कहं साक्ष्य न मान ।।
अधर अमिय हिय विष बसै, सुधा गरल कब होइ।
अधर पान मर्दन हियहिं, मरम न जानै कोइ।।
सठ बल हिंसारत सदा, दण्ड राजबल सोइ।
बनिता बल सेवा स्वजन, क्षमा सुजन बल होइ।।
बाणबिद्ध क्षत भरत पुनि, कटि तरू पल्लव लेइ।
कटु वाणी हिय घाव करि, जीवन महं दुख देइ।।
भ्रम माया पद लोभ महं, जीव पड़ा कलिकाल।
पंथ एक गुरू पद कृपा, दूरि करत भ्रम जाल।।
गुरू महिमा प्रकटत प्रभु, नित पद नावत शीश।
कौसिक प्रभु दर्शन गये, पूजत पद जगदीश।।
रचनाकार- डॉ. प्रदीप दुबे
(साहित्य शिरोमणि) शिक्षक/पत्रकार