ज्ञान सुधा (भाग-35)
मन मलीन नर संग शुचि, तेहिं प्रभाव नहिं कोइ।
मलयागिरि संसर्ग ते, बाँस न चन्दन होइ।।
निर्मल हिय निज भाव शुचि, सठ सुख इन्द्रिय पांच।
गीता पर निज हाँथ धरि, तबहुं न बोलत सांच।।
निज जड़ता कर ज्ञान नहिं, दुरत सदा निज दोष।
विफल होत उद्यम सदा, कारण त्रुटि परितोष।।
समय सदा परखत सबहिं, निरखत दैवहिं कर्म।
कटुवाणी जीवन दुखहिं, सहि सोइ जानइ मर्म।।
त्रुटि निज कर्महिं सीख नहिं, उचित न प्रति त्रुटि सीख।
जीवन लघु शत पञ्च वय, अंत काल प्रभु दीख।।
प्रेम सदन कर नीति अस, द्वेष होत दीवार।
जीव हिकारत त्यागु सब, प्रेम सदा सुख सार।।
काया नयन विहीन जो, अरू मन मुकुर मलीन।
जन्म अकारथ तासु जग, प्रभु देखै किमि दीन।।
कविगण देखै क्या नहीं, वनिता क्या न कराहिं।
मद्यप जल्पत क्या नहीं, वायस काहु न खाहिं।।
प्राणी चिन्ता क्यों करे, प्रभु कर आस भरोस।
मातु पयोधर देत पय, अर्भक जीवन तोष।।
मनुज जन्म धर्महिं विरत, अर्थ मोक्ष नहिं काम।
अजा कण्ठ स्तन सरिस, जीवन निष्फल नाम।
धर्म विरत मृत तुल्य नर, दया रहित पशु जान।
शील धर्म रत मरण जौ, करै प्रभुहिं गुण गान।।
भृंग पतिंगा मीन गज, मृग एक इन्द्रिय भोग।
प्राण जात एक भोग नर, सेवत पञ्चहिं योग।।
पर यश पावक जरत नित, पद यश मिलै न ताहिं।
गुण निन्दारत होइ तब, खल सुख पावत नाहिं।।
रचनाकार- डॉ. प्रदीप दूबे
(साहित्य शिरोमणि) शिक्षक/पत्रकार
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