पेड़ बिचारा करता क्या?
धूप का जंगल, नंगे पाँवों, एक बंजारा करता क्या?
रेत का दरिया, रेत के झरने, प्यास का मारा करता क्या?
बादल-बादल आग लगी थी, छाया तरसे छाया को
पत्ता-पत्ता सूख चुका था, पेड़ बिचारा करता क्या?
शायर अंसार कम्बरी जी की ये पंक्तियाँ घोर पर्यावरणीय संकट की समस्या पर प्रकाश डालती है। जैसा कि हम सब जानते हैं कि औद्योगिक क्रांति के बाद पृथ्वी के औसत तापमान में वृद्धि हुई है और इसका सीधा सा कारण ग्लोबल वार्मिंग है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार हर साल 2 से 4 लाख लोगों की मौत का कारण वायु प्रदूषण है। भारत में सबसे बड़ी प्रदूषण आपदा 1984 में भोपाल में घटी। इसकी यादें आज भी भारतीय मानस पटल पर हैं। हाल ही में प्रकाशित एक ताजा रिपोर्ट में कहा गया कि प्रदूषण के कारण दिल्ली में सालाना 10000 से 30000 जानें जा रही हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक नई रिपोर्ट में दुनिया के 20 सबसे प्रदूषित शहरों की सूची में 10वें स्थान पर भारत है जिसमें दिल्ली का प्रथम स्थान है।
यू.एस.ए. के लॉस एंजलिस में तो इतना बुरा हाल है कि एक स्कूल के खेल के मैदान पर चेतावनी लिखी गई है: ‘सावधान अअत्यधिक धुएँ की स्थिति में व्यायाम न करें, ना गहरी साँस ले।’ हम विकास की बड़ी-बड़ी बातें तो करते हैं परंतु यह सोचने की बात यह है कि ऐसा तीव्र अंधाधुंध विकास किस काम का, जिसका लाभ अपने निवासियों व विश्व को लाभदायक रूप में न मिल सके। हम यह क्यों भूल जाते हैं कि विकास पर्यावरण की कीमत पर नहीं किया जा सकता, इसमें अंततः मनुष्य की ही हार है। व्यक्ति बिना हवा पानी व स्वच्छ पर्यावरण के जिंदा नहीं रह सकता, अगर हम अब भी अपनी भूल को स्वीकार नहीं करते तो हम जिन नागरिकों के लिए विकास तीव्र कर रहे हैं, शायद वे उस विकास को देखने के लिए जिंदा ही न रहें; क्योंकि “जब आखिरी पेड़ कट जाएगा, आखिरी नदी के पानी में जहर घुल जाएगा और आखिरी मछली का शिकार हो जाएगा, तब इंसान को एहसास होगा कि वह पैसे नहीं खा सकता।”
अन्जू खरबंदा, दिल्ली।
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