आज अखिल ब्रह्माण्ड कोरोना वायरस के भय से संतप्त है। एक अदृश्यमान वायरस के भय से सबसे अधिक भयभीत सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न वर्ग के लोग ही हैं। अहर्निश श्रम करके समस्त जीवों को भोजन देने वाले अन्नदाता किसानों के चेहरे पर रंच मात्र भय दिखाई नहीं दे रहा है। आज सम्पूर्ण विश्व के समक्ष यह एक यक्ष प्रश्न है। धन, वैभव, राजसुख तथा शस्त्रों के सुरक्षा कवच में रहने वाले कुछ को छोड़कर शेष प्रभावशाली नेता, उद्योगपति, व्यवसायी और अधिकारी वर्ग भयाक्रांत होकर बिल में छिप गए हैं।
बिल में छिपकर जीवन-यापन करने के बाद भी उन्हें यथार्थ का बोध नहीं हो रहा है, यह उससे भी बड़ा प्रश्न है। आइए! सीमित शब्दों में हम चिंतन करें कि जब हमारी मानव शक्ति एक सूक्ष्म वायरस को न नष्ट कर पा रही है, न रोक पा रही है और न ही कोई निदान ढूढ़ पा रही है। सम्प्रति विश्व के कई परमाणु शक्ति संपन्न देश इस वायरस के आगे घुटने टेकने पर मजबूर हो गए तो निश्चित रूप से यह विकसित मानव का पाप या प्रकृति का संताप हीं हो सकता है। प्रकृति के अनन्य प्रेमी जीव, जंतु, पशु, पक्षी आज निर्भय होकर प्रकृति की गोद में खेल रहे हैं।
प्रकृति से प्रेम के साथ ही इनका पंचतत्वों (पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश) से भी गहरा रिश्ता है। परिणामस्वरूप सभी जीव निर्भय होकर विचरण कर रहे हैं। वे सूरदास की तरह नेत्रहीन तो हैं लेकिन उन्हें सबकी सुखद अनुभूति है जबकि आज का मानव उस रावण की तरह है जिसके पास नेत्र तो 20 हैं लेकिन फिर भी अंधा है- बीसहुं लोचन अंध धिग तव जनम कुजाति जड़। वसुधैव कुटुम्बकम का ज्ञान बांटने वाले मानव का प्रकृति के साथ कैसा बर्ताव है।
यह किसी से छिपा नहीं है। विनाशकारी शक्तियों को इकट्ठा करके मानव पंच तत्वों के साथ ही पेड़-पौधों पर भी अपना प्रभुत्व स्थापित करने की अनाधिकार चेष्टा कर रहा है तथा स्वयं को प्रकृति का स्वामी और प्रकृति को अपना सेवक मान रहा है। विनाशकारी शक्तियों को लेकर हम वर्षों पुराने हरे-भरे वृक्षों को क्षण मात्र में ही धराशायी कर देते हैं लेकिन हम अपनी सृजनात्मक शक्ति के विषय में तनिक भी नहीं सोचते कि वर्षों से पल्लवित और पुष्पित प्रकृति को हम क्षण भर में रौंद डालते हैं तो क्या हम दिन अथवा महीने भर में प्रकृति के उस सौन्दर्य को बनाने की सृजनात्मक शक्ति रखते हैं, कदापि नहीं।
हमारी समझ से विकसित मानव के पाप और प्रकृति के सन्ताप का ही प्रतिफल कोरोना वायरस के रूप में प्रकट हुआ है। अतिवृष्टि, अनावृष्टि, भूकंप आदि से हटकर अलग रूप में यह प्रकृति का छोटा सा खेल आरम्भ हुआ है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है कि मानव के कुकृत्य के प्रतिफल के रूप में भविष्य में ऐसी स्थिति उत्पन्न होगी कि मानव को बार-बार दुर्भिक्ष और अकाल का सामना करना पड़ेगा और अन्न के अभाव में लोगों के जीवन का अंत होगा- कलि बारहिं बार दुकाल परै, बिनु अन्न दुखी सब लोग मरै’। सम्प्रति रामचरितमानस में वर्णित कलिकाल में मानव की प्रकृति का विषय आज भी प्रासंगिक है। लघु जीवन संवत पंचदशा, कल्पांत न मान गुमान असा।। अहंकार ग्रसित मानव जिसकी जीवन अवधि 100-50 वर्ष की है लेकिन वह दुराचार, अनाचार में लिप्त होकर इस अभिमान में रहता कि हमारा नाश तो कल्पान्त यानी प्रलय के बाद भी नहीं होगा।
डा. प्रदीप दूबे (साहित्य शिरोमणि) शिक्षक/पत्रकार।
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