’बचपन, खुशियां और मां-बाप’
मुझे याद हैं
बचपन के वे दिन….
जब माँ को आनंद आता था
मेरे हँसने पर,तोतली भाषा बोलने पर,
खेल-खेल में गिर जाने पर…
या फिर बड़ों की डाँट से डरकर
गोद में दुबककर छुप जाने पर….
कंचे खेलने में, गुड्डी-पतंग उड़ाने में,
नन्ही उंगलियों से पेंच लड़ाने में….
इससे भी ज्यादा आनंद आता
चंदामामा के नाम पर
या रिश्तो की दुहाई देकर
दो निवाले ज्यादा खिलाने पर …..
मुझे याद है माँ की वो हँसी भी
जब हम पजामे की डोरी
या जूते के फीते बांधने में कंफ्यूज होते….
भला कैसे भुलाया जा सकता है
स्लेट पेंसिल से वर्णमाला सीखते समय
टेढ़ी-मेढ़ी लाइनों पर
माँ का हंसना-मुस्कुराना …..
हाँ……एक बात और……!
मुझे याद हैं बचपन के वे दिन भी
जब पिताजी भी खुश हुआ करते थे
मेरा स्कूल में एडमिशन कराने में,
घड़ी की सुई से समय देखना सीख जाने में,
या फिर साइकिल चलाना सीख जाने में ….
कबड्डी-क्रिकेट अच्छा खेलने में,
और इससे भी अधिक खुश होते
अच्छे नंबरों से कक्षा पास होने में…..
जाहिर है अलग-अलग ढंग से
माँ- बाप दोनों की खुशियां
मुझसे बहाल थीं …..
पर आज के दौर में मित्रों…..
इंटरनेट और ट्यूशन का क्रेज है,
फास्ट फूड का फेज है,
जींस में लगी एलास्टिक का एज है…..
मोबाइल में घड़ी है,
मोबाइल में ही दुनिया भर की लिखा पढ़ी है…
लिहाजा समाज में समस्याएं बड़ी-बड़ी हैं
कन्फ्यूजन बहुत ज्यादा है,
बच्चों पर कैरियर का बोझ भारी है,
और तो और……!
अभिभावकों में भी कंपटीशन जारी है….
मित्रों आज का सच यही है,
दुनियावी अंधी दौड़ में माँ-बाप के लिए
बच्चों का नैसर्गिक विकास
बेहद गौड़ हो गया है और
बच्चों की नादान हरकतों में
आनन्द और खुशियों की तलाश
शायद…….खुद ही भुला दिए गए हैं…..
आनंद और खुशियों की तलाश
शायद…….खुद ही भुला दिए गए हैं…..
रचनाकार- जितेन्द्र दुबे
अपर पुलिस अधीक्षक/क्षेत्राधिकारी नगर
जनपद-जौनपुर।