कुर्सी…
ज़माने में…..!
आदमी वही सुखी और खुशनसीब है
जिसकी किस्मत में,
कुर्सी…. होती नसीब है….
हालात भी कुछ अजीब हैं,
हर कोई…. चाहता है रहना…
कुर्सी के करीब है….
और…. यह आदमी की जात है…
सब जानते हैं अच्छे से,
बिना कुर्सी के…..!
आदमी…. आदमी की नजर में….
बेहद गरीब है… खुद में अज़ीब है…
और तो और…. यहाँ आदमी ही….
किसी की पहचान बताने को…
कुर्सी में भी ढूँढ़ लेता है,
नई-नई तरकीब…. और….
घोषित भी करा लेता है,
उसे महफ़िल में बाज़िब….
कुर्सी को कभी ऊँची कर,
कभी मध्य में सजाकर,
या फिर… तौलिया लगाकर….!
वही बना देता है किसी को “ज़ानिब”..
मान लो मित्रों…..!
आदमी खुद ही होता है,
इतना बड़ा ज़ालिम……
कभी कुर्सी पर गद्दी डालकर,
कभी एक कुर्सी अलग से सँवार कर,
कभी कुर्सी के आगे माइक लगाकर..
कुर्सी को बना देता है… रसूखदार….
इस कुर्सी की इज्जत में तो,
लग जाते हैं चार चाँद….
जब सामने प्लेट में हो…!
भुने हुए काजू-बादाम की बारात…
मज़ाल क्या है ज़नाब…. जो…
इस कुर्सी वाले का…. महफ़िल में….
दे सके कोई जवाब….!
इस कुर्सी पर आसीन आदमी,
सबसे अंत में बोलता है….
तब तलक तना-तना रहता है,
साथ वालों से भी…!
गम्भीर बना रहता है….
महफ़िल में…. बहुत कम बोलता है…
जैसे किसी ने…. कम बोलना….
पहले से ही सिखाया हो… और…
कुर्सी चालीसा का….!
विधिवत पाठ पढ़ाया हो…
अब और क्या बताऊँ मित्रों….!
इस कुर्सी के कारण ही… अब तो…
सब कुछ दिख रहा…. अजीबोगरीब है
सच मानो तो…. यही लग रहा है कि…
रसूख मापने का अब तो…
बस कुर्सी ही पैमाना …. और….
कुर्सी ही ज़रीब है….!
बस कुर्सी ही पैमाना ….और….
कुर्सी ही ज़रीब है….!
रचनाकार——जितेन्द्र दुबे
अपर पुलिस अधीक्षक
जनपद-कासगंज
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