हम बड़े क्यों हो गये?
बड़ा होता मनुष्य….अक्सर….
अपने बचपन को
याद करता रहता है
जहाँ स्वतंत्रता थी…..
नंगे बदन रहने की,
मिट्टी में लोटने की,
कजरौटा का काजल
शरीर में पोतने की…..
किसी के सर पर बैठने की,
साथ ही तोतली जुबान में
हर किसी को गरियाने की…
बचपन इस बात पर भी
याद आता है कि….
हमारी खुशियों का दायरा
कितना छोटा था….
हम खुश हो जाते थे….
गुब्बारों से…नए कपड़ों से….
स्कूटर के पीछे-पीछे भागने पर,
खुश हो जाते थे……..
पारले-जी के स्वाद पर,
बाइस्कोप वाले को देखकर,
बरफ (आइसक्रीम) वाले की
भोंपू की आवाज सुनकर…और..
मुंबईया मिठाई की घंटी तो
क्या बताऊँ….ससुरी आज भी
मुँह में पानी लाती है…..
हम खुश होते थे…..
लालटेन जलाना सीख लेने पर,
घड़ी से समय देख पाने पर…और
साइकिल चलाना सीख जाने पर
हमारी खुशियों में….
चार-चाँद लगाते थे मेहमान
हम खुश हो जाते थे
मेहमानों के आने पर….
सच कहूँ तो….शायद….
मिठाई और पकवान की आस में
मित्रों ….बचपन के…..
सब खेल-खिलौने,
गुड्डी-गुड़िया और गुल्ली-डंडा…
अकेले में या फिर
मित्रों के संग बकैती के दौरान
सब याद आते हैं…..पर….
क्या कहूँ मित्रों….?
जमाना कितना बदल गया है
अब फुरसत कहाँ है किसी को
दुनियावी थपेड़ों से…..
कहाँ मुलाकात हो पा रही है
पारले-जी या फिर
लाल जी के लाल पेड़ों से….
बचपन के साथी भी गुम हो गए हैं
भेंट होती है केवल….
नाम के रईसों से,
ऐसे बड़ों से…..
जिनके पास व्यर्थ की अकड़ है,
जिनके बीच….
बिना किसी लक्ष्य के अंधी दौड़ है
हार होगी किसकी या फिर
जीत होगी किसकी….
सवाल इस बात का नहीं है
बस दूसरे की टांग खींच कर
खुद आगे बढ़ने के लिए
अपनों में ही लगी होड़ है
ऐसे में क्या कहूँ मित्रों….
बचपन बहुत याद आता है
जब अपने हिस्से में….बस…..
खुशियाँ ही खुशियाँ थीं,
दुःख तो माँ-बाप के हिस्से में था
हम मित्रों के संग हर-पल
बचपने में आबाद थे…..
इन्हीं सुखद स्मृतियों को यादकर
बड़ा होता मनुष्य…बार-बार…
मन में यही सोचता है कि….
हम बड़े क्यों हो गए…..?
हम बड़े क्यों हो गए…..?
रचनाकार- जितेन्द्र दुबे
अपर पुलिस अधीक्षक/क्षेत्राधिकारी नगर
जनपद-जौनपुर
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