महिला आरक्षण: अभी लागू भले न हो मगर 2024 में रहेगी गूंज

महिला आरक्षण: अभी लागू भले न हो मगर 2024 में रहेगी गूंज

सुरेश गांधी
महिला आरक्षण बिल आने के बाद आधी आबादी में ढेरों की उम्मीद अभी से हिलोरे मारने लगी है लेकिन सच तो यह है कि महिलाओं के लिए एक तिहाई रिजर्वेशन डिलिमिटेशन यानी परिसीमन के बाद ही लागू होगा। विधेयक के कानून बनने के बाद जो पहली जनगणना होगी, उसके आधार पर परिसीमन होगा। मतलब साफ है कि 2026 से पहले परिसीमन लगभग असंभव है, क्योंकि 2021 में होने वाली जनगणना कोविड-19 की वजह से अभी तक नहीं हो सकी है। या यूं कहे कि जटिल जनगणना और परिसीमन प्रैक्टिस जैसे पहलुओं में फंसा महिला आरक्षण विधेयक 2029 के संसदीय चुनाव से पहले लागू नहीं हो पाएगा। इसी कारण कांग्रेस, आम आदमी पार्टी समेत कई दलों के नेता ये पूछ रहे हैं कि क्या सिर्फ अभी 2024 का चुनाव पास देखकर सरकार ने महिला आरक्षण बिल पेश कर दिया जबकि उसका फायदा अभी नहीं आगे होगा? ऐसे में बड़ा सवाल तो यही है। क्या महिला आरक्षण आगे पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव और 2024 के लोकसभा चुनाव में लागू हो पाएगा? कहीं ’प्रधानपति’ वाला कल्चर संसद तो नहीं पहुंच जाएगा? महिलाओं को लोकसभा में 33 फीसदी आरक्षण कब से मिलेगा? संसद में लोकसभा की कार्यवाही के पहले ही दिन सरकार ने उस बिल को पेश कर दिया जो पिछले 27 साल से संसद के दोनों सदनों से पास होकर कानून नहीं बन सका था। ये महिला आरक्षण बिल है जिसे लोकसभा में पेश करते हुए आज प्रधानमंत्री ने बिल का नाम नारी शक्ति वंदन अधिनियम बताया। इस बिल की खासियत यह है कि इसके समर्थन में भाजपा और कांग्रेस दोनों ही दल हैं लेकिन क्षेत्रीय पार्टिया पहले की तरह अब भी विरोध कर रही है। फिलहाल विधेयक पारित होने के बावजूद इसका लाभ लेने के लिए महिलाओं को अभी और इंतजार करना पड़ेगा। पहली जनगणना के बाद लोकसभा और विधानसभा सीटों का परिसीमन होगा। इसके बाद आरक्षण लागू होगा। या यूं कहे कि महिला आरक्षण विधेयक के व्यावहारिक रूप में लागू होने में अभी तीन-चार साल और लगने के आसार हैं लेकिन बड़ा सवाल तो यही है महिलाओं के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने की दुहाई देने वालों नेताओं को आखिर महिला आरक्षण विधेयक संसद में लाने की जरूरत क्यों पड़ी? क्या बिना आरक्षण के राजनीतिक दल महिलाओं को लोकसभा और विधानसभा चुनाव में पर्याप्त टिकट नहीं दे सकते? पिछले लोकसभा चुनाव में कुल 82 महिला सांसद चुनकर आई थी। मतलब साफ है जिस देश में आधी आबादी महिलाओं की हो वहां सिर्फ 15 फीसदी महिलाएं ही लोकसभा पहुंचे तो आश्चर्य होना स्वभाविक है जबकि 2019 से पहले हुए चुनाव में जीतने वाली महिला सांसदों की संख्या 82 से कम रहती आई है। विधानसभाओं के हाल भी कमोबेश लोकसभा जैसे ही हैं। आजादी के बाद हुए पहले सात आठ चुनाव की बात छोड़ दी जाएं तो बीते 30 सालों में महिलाएं राजनीति में अधिक नजर आने लगी है। ऐसे में महिला आरक्षण भले ही 3-4 साल बाद लागू हो लेकिन राजनीतिक दल यदि चाहे तो कम से कम 25 फिसदी महिलाओं को टिकट दे ही सकते हैं। वैसे भी महिलाओं के सांसद और विधायक बनने से देश को लाभ तो मिलेगा, उनके खिलाफ होने वाले अत्याचार के मामले भी कम होंगे। बता दें कि महिला आरक्षण 2029 लोकसभा चुनाव से पहलें संभव नहीं है। दरअसल आरक्षण को अमलीजामा पहनाने के लिए लंबी संवैधानिक प्रक्रिया है। इस बिल को 50 प्रतिशत राज्य विधानसभाओं की मंजूरी की आवश्यकता नहीं है। गृह मंत्रालय के मुताबिक जल्द ही ई—बिल के सापेक्ष रूल्स नोटिफाई करेगी।इसके बाद देश में जनगणना का काम शुरू होगा। फिर सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज की अध्यक्षता में परिसीमन आयोग का गठन किया जाएगा। परिसीमन आयोग लोकसभा और विधानसभा परिसीमन के साथ महिलाओं के लिए 33 फीसदी सीटों का चयन भी करेगा जो रोटेशन में बदलती रहेगी। यानी यह तो साफ है कि महिला आरक्षण कानून जनगणना और परिसीमन की प्रक्रिया पूरी होने के बाद ही लागू होगा। परिसीमन आयोग लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं के आरक्षित 33 प्रतिशत सीटों का चयन काम पूरा कर अपनी रिपोर्ट सौंप जल्दी सौप देता है तो उसके बाद जो भी विधानसभा चुनाव होंगे उनमें महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण लागू होगा। यहां जिक्र करना जरुरी है कि लोकसभा में महिला आरक्षण विधेयक पेश होने का देश की राजनीति पर बड़ा असर पड़ेगा। इससे तमाम राजनीतिक दलों पर महिलाओं को अधिक टिकट देने का दबाव होगा। महिला संगठनें महिलाओं को अधिक टिकट देने की मांग करेंगे। महिला आरक्षण विधेयक में ’कोटे के भीतर कोटा’ को स्वीकार करना भी एक रिग्रेसिव स्टेप है और इसे राजनीतिक निहित साधने के रूप में देखा जा सकता है। ’कोटा के भीतर कोटा’ में अन्य पिछड़े वर्गों को बाहर करने से विधेयक का एक नया विरोध शुरू होने वाला है जो अंततः पार्टी और वैचारिक जुड़ाव से परे होगा।

यूपी में महिला सदस्यों की संख्या दोगुनी हो जायेगी
देखा जाय तो महिला आरक्षण बिल के लागू होने के बाद लोकसभा में अभी के मुकाबले महिला सदस्यों की संख्या दोगुनी हो जाएगी। वहीं यूपी विधानसभा में महिला सदस्य करीब पौने तीन गुना बढ़ जाएंगी। यूपी में इस समय कुल 80 लोकसभा सीटें हैं। इसमें 12 महिला सांसद हैं। 33 फीसदी आरक्षण लागू हुआ तो 26 सीटें महिलाओं के लिए रिजर्व होंगी। इसमें भी एक-तिहाई सीटें एससी-एसटी के खाते में जाएंगी। यानी इस वर्ग से नौ महिलाओं का प्रतिनिधित्व अनिवार्य होगा। राज्यसभा की बात करें तो यूपी के कोटे में 31 सीटें हैं। अभी इनमें से छह पर महिला सदस्य हैं। 5 महिलाएं भाजपा के और एक सपा के सिंबल पर उच्च सदन में पहुंची हैं। इनकी भी संख्या बढ़कर 10 हो जाएगी। बता दें कि यूपी में विधानसभा की 403 सीटें हैं। इस समय विधानसभा में कुल 48 महिला विधायक हैं जो कुल सदस्य संख्या के 12 फीसदी से भी कम हैं। एक-तिहाई आरक्षण के बाद सदन में न्यूनतम 126 महिलाएं जरूर पहुंचेंगी। इनमें 42 महिलाएं एससी-एसटी की होंगी।

विधान परिषद की 100 पर महज 6 महिला सदस्य
विधान परिषद की 100 सीटों पर महज छह महिला सदस्य हैं। संविधान संशोधन के बाद इनके लिए 33 सीटें आरक्षित करनी होंगी। ऐसे में मौजूदा भागीदारी साढ़े गुना बढ़ जाएगी। आरक्षित सीटों में 11 एससी-एसटी के लिए होंगी। महिलाओं के लिए सियासी आरक्षण लागू होने का सीधा असर सत्ता और सियासी दलों की संगठनात्मक तस्वीर पर भी दिखेगा। बड़े सियासी दलों में लोकसभा या विधानसभा चुनावों में 10 से 15 फीसदी टिकट ही महिलाओं के हाथ आता है। 2022 में यूपी में कांग्रेस ने एक प्रयोग जरूर किया था और 40 फीसदी टिकट महिलाओं को दिया था। हालांकि, उसकी जमीन इतनी कमजोर थी कि प्रदेश में उसके कुल दो विधायक बने, इसमें एक महिला है। भाजपा ने 45 टिकट, सपा ने 42 और बसपा ने 37 टिकट महिलाओं को दिए थे। कुल 560 महिला उम्मीदवार विधानसभा चुनाव में उतरी थीं जिनमें 47 को जीत मिली। प्रत्याशियों और जीते उम्मीदवारों के हिसाब से भी आजादी के बाद यह संख्या सर्वाधिक है। मई में हुए उपचुनाव में भी महिला के विधायक चुने जाने के बाद यह संख्या 48 हो गई है। हालांकि आबादी के अनुपात में भागीदारी काफी कम है, खास बात यह है।

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