स्कूल तो खुले मगर बच्चों की मनःस्थिति?

स्कूल तो खुले मगर बच्चों की मनःस्थिति?

कोरोना के लम्बे दौर के बाद स्कूलों में लौट रहे बच्चों की मनःस्थिति वैसे तो अच्छी होनी चाहिए परंतु क्या वास्तव में ऐसा है भी यह सोचने का विषय जरूर है। कोरोना के समय का भय, तनाव, चिंता, निराशा और अवसाद की मानसिक समस्याएं कम तो हो रही हैं परंतु कोरोना का भय उनके मन में आज भी किसी न किसी सीमा तक व्याप्त है।


कोरोना के बाद स्कूलों के खुलने की सूचना बच्चों के लिए किसी आश्चर्य से कम नहीं रही। बच्चों का उत्साह सातवें आसमान पर था। हाँ, लंबे समय तक घरों में बंद रहना उनके लिए किसी कैदखघने में बंद रहने से कम नहीं था। साथियों से दो साल से दूर रहना, स्कूल की मस्ती से वंचित रहना, खुले परिसर से दूर रहना और अपने शिक्षकों के बहुमूल्य मार्ग दर्शन का अभाव तथा भविष्य की अनिश्चितता का दबाव आज भी उन्हें परेशान कर रहा है। इन बहुउपयोगी मानसिक कारकों की कमी उन्हें आज भी उलझन में डालती है।
चूंकि वे लंबी अवधि तक घरों में बंद रह गए, इस कारण से उनमें स्वाभाविक व्यवहारों का प्रदर्शन भी सरलता से नहीं हो रहा है जो आपसी मेल-जोल पहले था, वह एकाएक नहीं हो पा रहा है। वे स्कूल में वापस आने के बाद भी तुरंत पहले की तरह नहीं महसूस कर पा रहे हैं। उनकी सामाजिक सहजता घट गई है और कई बच्चे तो समूह में होने बाद भी बहुत सहज नहीं दिखते, लगता है कि अभी भी अतीत के नकारात्मक अनुभव उन्हें जकड़े हुए हैं। कई बच्चे तो खुद में ही खोये रहते हैं और टोके जाने पर चौंक जाते हैं। निश्चित रूप में उनमें अंर्तनिहित तनाव कहीं न कहीं इसका एक खास कारण है।
मन मे व्याप्त भय एवं आशका ऐसे कुछ विशेष कारण हैं कि स्कूलों के खुलने के बाद भी पूरी संख्या में बच्चे नही पहुंचे हैं। हाँ, परीक्षा की बाध्यता ने उनकी संख्या को जरूर बढ़ाया है। फिर भी मास्क और सामाजिक दूरी का मानक तो अभी भी अपेक्षित है, क्योंकि कोरोना लगभग खत्म तो है परंतु निर्मूल तो नहीं ही हुआ है।
बच्चों के मन को निर्भीक बनाने एवं उनके व्यवहार में सहजता लाने के लिए जरूरी है कि उन्हें परसपर अंतर्कि्रया एवं खेलकूद के लिए अवसर सुलभ कराया जाय। स्कूलों में मनोवैज्ञानिक कार्यक्रम कराया जाय, सामूहिक एवं व्यक्तिगत परामर्श की व्यवस्था की जाय, उनमें उत्साह बढ़ाएं और विश्वास दिलाएं कि संकट एवं संशय का दौर खत्म है, सुनहरे दिनों की वापसी हो रही है। साथ ही पाठ्यक्रम का बोझ कम किया जाय और उन्हें रोचक कार्यों में लगाकर उनमें पहले वाला विश्वास, उम्मीद और खुशी की राह फिर से प्रशस्त करके उनमें अव्यक्त तनाव एवं अन्य मानसिक संशय का समाधान कर सकते हैं। इसमें अभिभावकों की भी सक्रिय भूमिका जरूरी होगी।
प्रो. आर.एन. सिंह
मनोविज्ञान विभाग
बी.एच.यू. वाराणसी

 

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