राजनीति और कॉरपोरेट का गठजोड़

राजनीति और कॉरपोरेट का गठजोड़

डा. राहुल सिंह
संविधान कुर्सियों का ही तो प्रावधान कर सकता था। कुर्सियां अपना कामकर रही हैं। अब यह बात रिसर्च की है कि इन कुर्सियों पर कभी भाई भतीजावाद बैठता है, कभी जातिबिरादरी बैठती है, कभी पैसा (उत्कोच) बैठता है, कभी कुर्सियों पर कॉरपोरेट घरानों का निहित स्वार्थ बैठा दिया जाता है, कभी कुर्सियों पर मजहब और पंथ बैठ जाते हैं, कभी चेले—चपाटे बैठाए जाते हैं, कभी कठपुतली कठपुतले बैठा दिए जाते हैं।

गरीबी के नाम पर कोई भी चीज मुफ्त बांटने की नीति उस गरीब को हमेशा के लिए पंगु बनाने की नीति है। क्या आपने सोचा है कि इसका दूरगामी परिणाम क्या होगा? यह नीति आदमी और आदमीयत का अनादर तो है ही, उसके नागरिक अधिकार का हनन भी है क्या देश की उस प्राकृतिक संपदा पर उसका हक नहीं है, जिस पर कुछ कॉरपोरेट घरानों ने कब्जा कर लिया है? मुफ्त देना अर्थात् भिखारी बनाना नागरिक के स्वाभिमान को छीनना भीख नहीं, उसका अधिकार दीजिए।

रोजगार दीजिए यह सोचना होगा कि देश की प्राकृतिक संपदा टेक्नॉलॉजी के साथ आबादी का श्रम का सामंजस्य कैसे हो? भ्रष्टाचार के विभिन्न रूप हैं, उन रूपों को जानने के लिए मीडिया घरानों, कॉरपोरेट घरानों और सत्ता केंद्रों के बीच जो संबंध सूत्र है, उसे और अधिक गहराई से पहचानने की आवश्यकता है।

गीता में कहा गया है कि एक महान व्यक्ति जो करता है, उसका अन्य देवताओं द्वारा पालन किया जाता है। अर्थात जो आचरण समाज में श्रेष्ठ माना जाता है, उसका दूसरे लोग प्रमाण के रूप में अनुसरण करते हैं। यदि वे नेता चोरी करने का आदर्श देखेंगे तो चोरी करना भी एक न्यायोचित अधिकारी बन जायेगा।

अगर वे भ्रष्ट हैं तो हम उनके अधिकारियों से क्या उम्मीद कर सकते हैं? आप भ्रष्टाचार के खिलाफ जो कुछ भी कहेंगे वह पाखंड होगा। यदि आप समाज में इस तरह के विज्ञापन बने रहते हैं तो अन्य लोग इसे प्रमाण के रूप में लेंगे और उसी तरह व्यवहार करेंगे। पैसा कहीं भी देखो, वैसे भी! आप अपनी पसंद के लिए डेटाबेस की मात्रा ले रहे हैं। आप कितने भी छुपे क्यों न हों, ऐसा नहीं हो सकता कि बाकी सभी को यह दिखाई न दे रहा हो। सभी मन में जीवन को समझ रहे हैं।

जब तुम चोरी कर रहे हो, भ्रष्टाचार कर रहे हो तो क्या दूसरे तुम्हारा अनुसरण करेंगे? हालाँकि सभी अपवाद राजनीति में हैं। सभी को चालाक कहना उचित नहीं होगा और सभी के लिए झूठा सामान्य परिदृश्य दृष्टिकोण है। अन्य लोगों ने भी इस मुद्दे के प्रति सचेत किया है और उनका कहना है कि कारण और राजनीति हाल के दशकों में इस परिदृश्य के उभरने से जुड़ी हुई है।

देश की लोकोन्मुख अर्थव्यवस्था का स्वरूप क्या है? देश की कुल संपदा आय आज कुछ लोगों के हाथ न? क्या भ्रष्टाचार और धोखाधड़ी हमारी अर्थव्यवस्था का स्थायी स्वभाव बन गया है? क्या हमारी कॉरपोरेट घरानों और राजसत्ता के गठजोड़ से चल रही है? अर्थव्यवस्था गतिमान है, यह बात बार-बार जाती है किंतु क्या इससे जन सामान्य को अपेक्षित लाभ मिला है? बेरोजगारी की समस्या बढ़ी है या घटी है? आत्मनिर्भरता का क्या हुआ? अर्थव्यवस्था में जन-भागीदारी का क्या रूप है? बैंकों की लूट का क्या परिणाम होगा? स्वदेशी उद्योग का विकास कैसे होगा?

आज बड़ी मछली छोटी मछली को निगलती जा रही है? प्राकृतिक संसाधनों पर माफियाओं के कब्जे हो रहे हैं? उत्पादक को उत्पादन का लाभ न मिले और विचौलिया मुनाफा कमाए तो भला अध्यापक और अध्यापिकाएं पढ़ा रही हैं, उन्हें क्या मिल रहा है? दस या पंद्रह हजार? बाकी मुनाफा कौन ले रहा है?

जो खेती कर रहा है, उसे क्या मिला? कितना मिला? बाकी मुनाफा किसे मिला? श्रमिक आधे पेट रहे और कॉरपोरेट का पेट फूलता जाए। दलाली और ठेकेदारी वाली अर्थव्यवस्था कुछ दिन तो यह आभास दे सकती है कि बड़े सस्ते में पार हो गए किन्तु अन्ततः वह धोखा ही सिद्ध होगी। आज सबसे अधिक गैरजिम्मेदाराना व्यवहार कर रहा है? लोकतंत्र के तथाकथित चौथे स्तंभ का है? उसकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्र आज कॉरपोरेट घरानों के यहां गिरवी रखी है। मुनाफा। हालांकि कुछ पत्रकार ऐसे भी हैं जो खतरों से खेल रहे हैं। सोशल मीडिया पर भी भाड़े के लोग कीर्तन कर रहे हैं।

भ्रामक वातावरण बनाना चाहते हैं। कसौटी तो लोकतंत्र के प्रति निष्ठा है।
आपने विकास का कोलाहल करके लोगों से जल जंगल जमीन छीन ली। आपने देश के प्राकृतिक संसाधनों पर बाजार की शक्तियों को कब्जा दे दिया? इसे आप अपनी महरबानी समझ रहे हैं? आप लोगों को अपने कुएं से पानी भर कर मत पिलाइए। लोगों को आप जमीन बता दीजिए, ताकि वे खुद ही कुआं खोदें और खुद ही पानी पिए। उनको मुफ्त में कुछ भी देना, अन्याय है।

मुफ्तखोरी से देश का भला नहीं होगा। आप विषमता कम करने का कानून बनाइए। आप लोगों को उत्पादन के साधन दीजिए। देश के प्राकृतिक संसाधन देश के लोगों के हैं, किसी राजनैतिक दल या कॉरपोरेट देश के प्राकृतिक संसाधन सौंप कर पाप किया है। कंपनियों का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है और अधिक बढ़ेगा। कंपनियों का सबसे बड़ा सत्य, सबसे बड़ा धर्म, सबसे बड़ा संविधान और उनका ईश्वर केवल और केवल मुनाफा है। पैसा! वही देशभक्ति है, वही समाज सेवा कॉरपोरेट घराने आज राजसत्ता की नीतियों को प्रभावित करने की शक्ति और स्थिति प्राप्त कर चुके हैं। राष्ट्रवाद कहीं पूंजीपतियों और कॉरपोरेट घरानों के रक्षाकवच काम तो नहीं।

गरीबी के नाम पर कोई भी चीज मुफ्त बाटने की नीति उस गरीब को हमेशा के लिए पंगु बनाने की नीति है। क्या आपने सोचा है कि इसका दूरगामी परिणाम क्या होगा? यह नीति आदमी और आदमीयत का अनादर तो है ही। उसके नागरिक अधिकार का हनन भी है। क्या देश की उस प्राकृतिक संपदा पर उसका हक नहीं है जिस पर कुछ कॉरपोरेट घरानों ने कब्जा कर लिया है? मुफ्त देना अर्थात् भिखारी बनाना नागरिक के स्वाभिमान को छीनना।

भीख नहीं, उसका अधिकार दीजिए रोजगार दीजिए यह सोचना होगा कि देश की प्राकृतिक संपदा टेक्नॉलॉजी के 1 साथ आबादी का, श्रम का सामंजस्य कैसे हो? भ्रष्टाचार के विभिन्न रूप हैं, उन रूपों को जानने के लिए मीडिया घरानों, कॉरपोरेट घरानों और सत्ता केंद्रों के बीच जो संबंध सूत्र है, उसे और अधिक गहराई से पहचानने की आवश्यकता है। देश के लोक जीवन का प्रतिनिधित्व करती हैं?

संविधान कुर्सियों का ही तो प्रावधान कर सकता था, कुर्सियां अपना काम कर रही हैं। कभी गुड्डा-गुड़िया गरीबी के नाम पर कोई भी चीज मुफ्त बाटने बैठते हैं, कभी कुर्सियों पर दरबारी और जयजय कारी बैठ जाते हैं। हो जब कभी इन कुर्सियों पर आदमी बैठ जाता है तब इतिहास हाथ जोड़ कर सामने खड़ा हो जाता है। सिंहासन हिल जाते हैं। लोग हजार बार याद करते हैं कि एक टीएन शेषन भी था। फेसबुक पर पढ़ा है- जजों की संख्या और मुकदमों की संख्या के अनुपात को लेकर सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की चिंता क्या कॉरपोरेट के लिए व्यावसायिक कोर्ट बनाने का कोई प्रस्ताव है?

क्या ऐसा प्रयास संविधान की उस भावना के विरुद्ध नहीं होगा जिसमें बिना किसी भेदभाव के सभी नागरिकों को न्याय पाने का मौलिक अधिकार प्रदान किया गया है? कॉरपोरेट के साथ ही आम आदमी को भी शीघ्र न्याय मिले क्या उन्हें इसकी भी उतनी ही चिंता है? क्या कॉरपोरेट भारत की कोटि-कोटि जनता के ऊपर है? कहीं ऐसा तो नहीं कि शिक्षा की तरह न्याय की भी दुकान जमाने की तैयारी gks A क्या सत्ता का सूत्र सचमुच कारपोरेट के हाथो में सिमट रहा है।
लेखक राज स्कूल आफ मैनेजमेन्ट साइन्स वाराणसी के निदेशक हैं।

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