एक परीक्षा और सही…!

एक परीक्षा और सही…!

चूँकि मैं बेरोजगार हूँ…!
इसलिए… बेमुरौअत…
बता सकता हूँ…
इस बुरे दौर के…!
अनुभवजन्य अज्ञात भय को,
आशा और निराशा के द्वंद्व को,
और गिना सकता हूँ…!
खुद को खरा सोना,
साबित करने के लिए…
बचपन से लेकर आज तक…!
दी गई परीक्षाओं की,
अनगिनत और लम्बी श्रृंखला को…
यहाँ तक कि…. बता सकता हूँ…
इस दौर में चपला की माया को भी…
साथ ही…. यह भी कह सकता हूँ…
कि आज तक…!
शुद्धता की… खरा होने की…
सीमा को और… परिभाषा को भी…!
समझ भी नहीं पाया हूँ…
शायद इसलिए कि…!
इसका मानक-पैमाना ही अभी तक
समाज में… निश्चित नहीं हो पाया…
पक्की परिभाषा भी… अभी तक…!
कोई गढ़ नहीं पाया है…..
फिर… जो हमने बचपन से ही…
अपने बुजुर्गों के मुख से सुना है…
उसका भी ख्याल आता है…!
कि आग में तप कर,
सोना और भी खरा हो जाता है…
इसलिए चूक कोई ना शेष रहे,
संदेश सभी में विशेष रहे… सो…
कहता हूँ कि जो शेष बची है…!
एक अग्नि परीक्षा ही…
अब अग्नि परीक्षा भी… ले ही लो…
बेरोजगार ही तो ठहरे,
एक परीक्षा और सही…!
हम सब का भला क्या जाता है…
हम सब का भला क्या जाता है…

रचनाकार——जितेन्द्र दुबे
अपर पुलिस उपायुक्त, लखनऊ

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