माँ! तूने तो मुझे कई वर्षों शौंचाया है

माँ! तूने तो मुझे कई वर्षों शौंचाया है

वो माँ-बेटी का हृदयस्पर्शी वार्तालाप,
अनजाने में पिता ने सुना
द्रवित हो वह अश्रुपूरित हुआ
दो वाक्यों में अन्तर्मन की गाथा को सुना।

माँ थी एक माह तक गहन कक्ष अस्पताल के
ब्रेन ट्यूमर की हुई थी शल्य चिकित्सा
दो हफ्तों तक नहीं था होश
सब थे परेशान, परिजन कर रहे थे सुश्रूषा।

बेटी माँ का हाथ अपने सिर पर रख
माँ के आंचल में दुबकी रहती
दिन-रात, भूख-प्यास न निद्रा की परवाह
माँ! माँ!! और माँ की चेतना की आश करती।

डॉक्टर पीयूष प्रशांत की मेहनत रंग लाई
चौदह दिवस बाद माँ ने अंगुली हिलाई
सभी के चेहरों पर मुस्कान लौट आई
माँ ने आँखें खोलीं तो सबको खिलाई मिठाई।

कुछ दिनों बाद डॉक्टर ने हिदातों
के साथ माँ को घर भेजा
माँ की माँ, बड़ी बेटी-दामाद
पति, बेटा सबने की भरपूर सेवा।

अभी भी अचल थी माँ
उठाना बैठाना सबकी दरकार थी
माँ को अस्थायी शौचोपकरण पर बैठाकर
बेटी उसे स्वच्छ कर रही थी।

इसी बीच माँ बोली अरी बेटी!
तुझे शुचि करना पढ़ रहा है
माँ! इसमें क्या बड़ी बात है
तूने तो मुझे बचपन के कई वर्षों शौंचाया है।

पिता, पर्दे की ओट में ये वार्ता सुनकर
स्वयं में अश्रु-स्नान कर रहा था
निज को धन्य व गुमान कर रहा था
ऐसी बेटी सबको दे ईश्वर ये अर्ज कर रहा था।

माँ-बेटी ये नहीं जानती कि उनकी
वार्ता पिता भी सुन रहा है
एक वर्ष बाद इस कविता से
उनका यह रहस्य खुल रहा है।

माँ को रहती बच्चों से एक आस
वे प्रगति की ऊँचाइयाँ छुएँ
उन्हें भूलें नहीं, स्मृत रखें
चाहे दूर रहें या रहें पास।

डॉ. महेन्द्र जैन ‘मनुज’
रामगंज, जिंसी, इन्दौर

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