14 अप्रैल! एक बार फिर भारत रत्न डा. भीम राव अम्बेडकर की स्मृतियों को पुनर्जीवित करने का स्वांग रचा जाएगा। एक बार फिर भारतीय इतिहास के उस शलाका पुरुष को नमन किया जाएगा, साथ ही सेंकी जाएंगी राजनीति की रोटियां, सहेजे जाएंगे वोटबैंक और मूर्ति पूजा के आजीवन विरोधी डास. अम्बेडकर की मूर्तियों पर माल्यार्पण कर उनके प्रति श्रद्धा एवं निष्ठा प्रदर्शित करने का भी उपक्रम होगा ही होगा। कोरोना की महामारी न होती तो बड़े पैमाने पर कार्यक्रम भी आयोजित होते ही जिनके माध्यम से यह बताने का प्रयास किया जाता कि देश उनका ऋणी है और लोग अभी भी उनके प्रति कृतज्ञ बने हुए हैं। इस रस्म अदायगी में न सत्ता पक्ष के लोग पीछे रहते और न ही विपक्ष के। डा. अम्बेडकर के कुछ मानस पुत्रों और पुत्रियों का तो कहना ही क्या।
महापुरुषों की स्मृतियों को ताजा करने के लिए कार्यक्रम होने चाहिए, इससे मुझे कोई गिला नहीं। जनता को भी अपने आराध्य की आराधना का अधिकार होना चाहिए, इससे भी कोई शिकवा नहीं परंतु शिकायत इस बात पर जरूर है कि अम्बेडकर जयंती जैसा पर्व मनाने का अधिकार किसे होना चाहिए या फिर उस महामानव की स्मृति को पुनरांकित करने के मायने क्या होना चाहिए?
वह महामानव जो भारत की अनंत कालीन जड़ता को अपने व्यक्तित्व की आभा से तोड़ देता है। भारत के इतिहास को झकझोर देता है। बरसों से सोई दलित शक्ति को जागृत करता है। दलितोत्थान और अछूतोद्धार का पैगम्बर बनता है। शिक्षा के रास्ते में आने वाली ढेर सारी सामाजिक रूढ़ियां, उनके शिक्षा के प्रति समर्पण को रोक नहीं पातीं, धार्मिक पोंगापंथी का आवरण उनकी प्रगतिशीलता को उपाच्छादित नहीं कर पाती। भारतीय समाज की सर्वकालिक जड़ता उनके राजनीतिक मंजिल में बाधा नहीं बन पाती। अन्ततोगत्वा भारत अपने भावी भविष्य के शिल्पी के रूप में उन्हें स्वीकार करता है और अछूत के घर पैदा होने वाला महामानव, भारतीय समाज राजनीति के अमर नक्षत्रों में शुमार हो जाता है। इसी महामानव, महायोद्धा, महाज्ञानी का नाम है डा. भीम राव अम्बेडकर।
अद्भुत जीवन यात्रा। 14 अप्रैल 1891 को जन्म, सतारा के सरकारी विद्यालय से शिक्षा का प्रारम्भ और कोलम्बिया विश्वविद्यालय से भारत की अर्थव्यवस्था पर शोध उपाधि। जिस व्यक्ति को कदम कदम पर शिक्षा प्राप्ति के लिए अपमानित और तिरस्कृत होना पड़ा हो, उसने अपने संघर्षों को जारी रखा तथा एलएलबी, डीएससी, जैसे उपाधियों को प्राप्त किया। मूक नायक के प्रकाशन के साथ प्रारम्भ हुआ राजनीतिक सामाजिक जीवन का संघर्षपूर्ण सफर। यहीं से प्रारम्भ हुआ दलितोत्थान और दलितोद्धार का वह संघर्ष जो जीवन पर्यंत चलता रहा और जिसने एक मानव को महामानव और नायक को महानायक बना दिया।
1923 में बम्बई विधान परिषद का सदस्य नामित किया गया तो भारत में कदाचित पहली बार विधानमण्डल की मौन दीवारें दलित हुंकार से कम्पित हुईं। बहिष्कृत भारत के प्रकाशन से ब्राह्मणवाद और सामाजिक अन्याय के विरोध का स्वर मुखरित किया। 1930 और 1931 के सम्मेलन में उनकी सहभागिता और दलितों के लिए पृथक प्रतिनिधित्व की मांग पर आलोचना बहुत हुई पर सामूहिक हित के मसले पर व्यक्तिगत आलोचना की कोई परवाह नहीं किया। धर्म, ज्यों ही आड़े आया, धर्म बदल लिया परंतु उसूल नहीं छोड़ा। जब भारत को आजादी मिली तब भारत के विधि मंत्री के दायित्व को भी ग्रहण किया। 30 अगस्त 1947 को भारत की संविधान निर्मात्री सभा ने संविधान प्रारूप समिति का अध्यक्ष निर्वाचित किया। नियति का चक्र बदला, समय का पहिया डोला। जिस दलित को एक समय के नियम कानूनों ने पशु से भी बदतर स्थिति में डाल दिया था, उसी दलित की अध्यक्षता में नियम कानून कायदों को लिखित रूप में मूर्त रूप दिया गया।
ऐसे महामानव की स्मृतियों को प्रणाम किया ही जाना चाहिये परंतु प्रश्न उठता है इसे रस्मी क्यों बनाया जाय? अम्बेडकर ने दलितों का आह्वान करते हुए कहा था ‘एक हो , शिक्षित हो, संघर्ष करो…सब मिल जाएगा जो तुम चाहते हो। उनकी सेवाओं के कारण जब दलितों ने उन्हें देवता कहना शुरू किया तो उन्होंने उन्हें फटकारते हुए कहा था- तुमने अपने जैसे ही एक आदमी को ईश्वर बना दिया, तुम्हारी ये भावनाएं तुम्हारे लिए घातक हैं। दूसरे को ईश्वर बनाना और अपने उद्धार का बोझ उस पर डालना तुम्हें कमजोर बनाता है। इस भाव ने तुम्हारा ही नहीं, सारे हिन्दू समाज का विनाश किया है। तुम्हारी इस दशा का यदि कोई कारण है तो यही दूसरों को देवता मानना।
हमने भुला दिया अम्बेडकर के कहे वचनों को। दुर्भाग्य से जिन चीजों से सावधान किया था, उन्हें ही आत्मसात कर लिया गया। अम्बेडकर को वोटबैंक की हिफाजत का हथियार बनाकर छोड़ दिया गया। उन्होंने कहा था एक बनो, शिक्षित बनो और संघर्ष करो, अनुयाइयों ने शिक्षा को परे रख दिया। हर कोने में अम्बेडकर की मूर्ति के पास अम्बेडकर जयंती पर डीजे लगाकर डांस करने वाले सरस्वतीविहीन अनेकानेक युवा मिल जाएंगे जिनके कमर की हर लचक से अम्बेडकर की आत्मा को दुखनुभूति जरूर होती होगी। आमोद-प्रमोद में लिप्त राजनैतिक नेतृत्व अब शायद ही अम्बेडकर के संघर्ष के रास्ते को आत्मसात करता है। पंचसितारा होटलों में, शीतताप के मोहक वातावरण में बड़े-बड़े सभागारों में बैठकर अम्बेडकर को याद करने वालों के कदम शायद ही कभी खेत खलिहानों में देखे जाते हैं। अम्बेडकर के नाम पर अपनी राजनीति को धार देने वाला दलित नेतृत्व शायद ही कभी दलित पीड़ा का एहसास कर पाता है।
अम्बेडकर जैसे महामानव, रस्मी आयोजनों के मोहताज नहीं होते, न ही इनके नाम पर डिजेबाजी और ड्रामेबाजी होनी चाहिए, स्वयं को डा. अम्बेडकर का उत्तराधिकारी घोषित करने वाले नेताओं को भी डा. अम्बेडकर की जयंती मनाने का अधिकार नहीं, यदि उनमें अम्बेडकर की नीतियों के प्रति आस्था नहीं है, शिक्षा के प्रति समर्पण नहीं है और संघर्ष की राह से उनका याराना नहीं है। वास्तव में किसी पीड़ित व्यक्ति के पांव में चुभे कांटे को निकालकर उसे पीड़ामुक्त करने की क्रिया का नाम है अम्बेडकर। अम्बेडकर किसी शिला या मूर्ति का नाम नहीं। अम्बेडकर, संघर्ष का नाम है, समझौते का नहीं। अम्बेडकर प्रतिमान हैं, प्रतिमा नहीं। संविधान हैं, संविदा नहीं।
डा. धर्मेन्द्र प्रताप श्रीवास्तव
एसएमआरडी पीजी कालेज भुड़कुड़ा, गाजीपुर।
डा. सन्तोष पाण्डेय
राज कालेज, जौनपुर।