राजनीतिक का गिरता चरित्र और घटती साख

राजनीतिक का गिरता चरित्र और घटती साख

बाबतपुर—वाराणसी। राजनीति का यह दौर वैचारिक और सैद्धांतिक रुप से संक्रमण का है। राजनीति हर पल एक नयी भाषा और परिभाषा गढती दिखती है। वैचारिकता की जमींन सै़द्धांतिक रुप से बंजर हो चली है। विचारों का कोई चरित्र है न चेहरा। सियासत में चहुंओर सिर्फ सत्ता के लिए संघर्ष है। जुमले गढ़ती राजनीति वैचारिता को पालती पोषती नहीं दिखती। राजनीतिक दलों में विचाराधारा सिद्धांत नहीं बन पा रही। राजनीति की बदलती परिभाषा में यह कहना मुश्किल है कि विचारों का सि़द्धांत होता है या फिर अपनी सुविधा के अनुसार विचार और सिद्धांत बनाए बिगाड़े जाते हैं। सत्ता हो या प्रतिपक्ष उसके तथ्य और कथ्य में स्थायीत्व नहीं दिखता है। राजनीति का मकसद सिर्फ सत्ता का संघर्ष हो चला है। तकनीकी रुप से राजनीति परिमार्जित तो हुई है लेकिन भाषायी और वैचारिकता तौर पर परिष्कृत नहीं हो पायी जबकि हमारा लोकतंत्र बेहद सुदृढ़ हुआ है। उसने बदलाव को आत्मसात किया है, स्वाधीनता के बाद के मिथकों को तोड़ा है। वह तकनीकी के साथ सोच के धरातल पर संवृद्ध हुआ है। लेकिन अगर कुछ बदला नहीं है तो वह है सत्ता के लिए अधिनायकों का संघर्ष। सत्ता की नीति यह साबित करती है कि सिंहासन हासिल करने के लिए साम, दाम, दंड, भय और भेद कामय है और हमेशा रहेगा। इस संघर्ष में संगे संबंधी, बंधु-बांधव, अपने पराये कोई मायने नहीं रखते। रामायण काल में मां कैकयी, महाभारत में द्रुत क्रीडा, मुगल काल में अपनों का कत्ते आम जैसे अनगिनत उदाहरण हैं। इतिहास का पूरा कालखंड इसकी सम्यक गवाही देता है यानी राजनीति में सब कुछ जायज है।
भारत लोकतांत्रित व्यवस्था में दुनिया का सबसे संवृद्धशाली देश है। दुनिया यहां की लोकतांत्रिक व्यवस्था से सबक लेते हैं। हमारी राजनीति में वैचारिक, सै़द्धांतिक एवं चारित्रिक गिरावट आयी है। राजनीतिक दलों और राजनेताओं की सारी रणनीति सत्ता के इर्द-गिर्द सिमटती दिखती है। देश में चुनावी मौसम उफान पर है। वहीं राजनीतिक दलों में बिखराव, विघट और टूटन जारी है। राजनीति के केंद्र में सिर्फ सत्ता नहीं होनी चाहिए, उसमें नीति, नीयति, निर्माण के साथ विचारशीलता भी होनीच चाहिए। आज के संदर्भ में शायद यह बात बेइमानी साबित हो चली है। दलों में संगठन, विचार, सि़द्धांत हासिए पर है। चुनावों में मुद्दो की जमींन खाली है। नेता सिर्फ घात-प्रतिघात में लगे हैं। जहां से लोकतंत्र जिंदा हैं, उस अंतिम पड़ाव खाली है। चुनावी सभाओं में लक्षेदार जुमले गढ़ जा रहे हैं। भावनात्मक भावनाओं को आगे कर तालियां लूटी जा रही हैं। राजनेता दलीय प्रतिब़द्धता को खूंटी पर टांग टिकट न मिलने पर पाला बदलते दिख रहे हैं। कल जिस मंच से वह विरोधी दलों पर हमले बोल रहे थे, आज उसी पाले में खड़े अट्टास कर लोकतंत्र की गरिमा का उपहास उड़ा रहे हैं और भीड़ जिंदाबांद करती दिखती है। इसके लिए कौन गुनहगार है। हमारी संविधानिक प्रणाली, विधान या फिर हम यानी जनतंत्र।
चुनावी मौसम में चिलचिलाती धूप में जनता अपने दल और नेताओं के लिए जिंदाबाद के नारे लगाती है। पार्टी कार्यकर्ता सियासी संघर्ष के दौरान अपने नेता के लिए पुलिस की लाठियां और कड़ाके की ठंड में दिल्ली के राजपथ पर वाटर कैनन का सामना करता है। बूथ पर एक-एक वोट लाता है। अपने अधिनायक के लिए वह सब कुछ करने को तैयार रहता है। वह झंडे और डंडे के साथ गलाफाड़ नारों के साथ सियासी विचाराधारा को कभी परास्त नहीं होने देता। चुनावों में वह दिन रात संघर्ष्स करता है जिसकी वजह से राजनेता दिल्ली दरबार तक पहुंचता है लेकिन जिसके लिए वह सब करता है, वहीं राजनेता टिकट न मिलने की वजह से सालों की अपनी दलीय निष्ठा को खूटी पर टांग बेमेल विचारधारा और नीतियों को गले लगा दूसरे दल का दामन थामन लेता है। वह किसलिए पाला बदलता है? दूसरी राजनीतिक विचारधारा से जुड़ने का उसका मकसद क्या होता है। टिकट न मिलने से जिस विचाराधारा स वज जुड़ा होता है वह अचानक अपवित्र क्यों हो जाती है। इससे यह साबित होता है कि राजीति में लोग जनेसवा नहीं खुद का व्यापार करने आते हैं। राजनीति एक सौदा के साथ बाजार बन गया है। बदले दौर में विचार और नीतियां सिर्फ प्रस्तावना की लाइन भर हैं।
भारतीय राजनीति में ग्लैमर हावी हो चला है। सेलिब्रेटी, अभिनेता, क्रिकेटर सभी की राजनीति पहली पसंद बन गयी है। रानैतिक दल चुनाव जीतने के लिए हर तरह के हथकंडे अपना रहे हैं। हर रोज नए जुमले गढ़े जा रहे हैं। राजनीति में भाषाई नैतिकता के पतन पर होड़ सी दिखती है। कौन कितना गिर सकता है यह कहना मुश्किल है। अब विकास नहीं सिर्फ नारों की बदौलत सत्ता का संघर्ष जारी है। आम आदमी जहां कल खड़ा था वहीं आज भी है। गरीब और गरीब जबकि अमीर और अमीर होता गया जबकि सत्ता के इतिहास में गरीबी मिटाने का हर चुनावों में सपना बेचा गया। समता, समानता का मंत्र जाप किया जाता रहा लेकिन जमींनी पड़ताल में आम आदमी पराजित और परास्त है। बढ़ती बेगारी, किसानों की आत्महत्या, महिला असुरक्षा, बढ़ती गरीबी, आतंकवाद, नक्सलवाद, नस्लवाद, स्वास्थ्य, पर्यावरण जैसे तमाम मसलों पर कोई काम नहीं दिखता।
लोकतंत्र में चुनाव सरकारों को चुनने का अहम माध्यम हैं लेकिन चुनावों में आने वाले लोग कौन हैं। जनसेवा का आवरण ओढ़ने वाले राजनेता चुनावी मौसम प्रतिबद्धता क्यों कायम नहीं रख पाते हैं। चिलचिलाती धूप में खेतों में गेहूं काटने, गरीब के घर केले के पत्तल पर भोजन करने, आटो चलाते, सड़क चलते घायल व्यक्ति को खुद की गाड़ी में बिठाने के साथ पसीने पोंछने के साथ पांव पखारने का क्रम क्यों कामय नहीं रखते हैं। जनतंत्र बौद्धिक रुप प्रौढ़ है। लोग सब जानते हैं कि यह चुनावी स्वांग हैं। सवाल उठता है कि जनसेवा का माध्यम का सिर्फ राजनीति है। बगैर राजनीति के जनसेवा नहीं की जा सकती है। चुनावों में गेहूं की फसल काटने वाले राजनेता संसद में कभी किसानों की आत्महत्या पर मुंह खोला है है क्या। दलितों के घर भोजन करने वाले 5 साल तक क्या झुग्गी झोपिड़यों कभी कदम रखा। राजनीति में क्या एक पट्टीका और कुछ गुलस्ते के साथ मीडिया के चमकते कैमरों के सामने साल ओढ़ने विचारधारा और सिद्धांत का बदल जाते हैं। पूर्व की नीतियां और सिद्धांत बेइमनी हो जाते हैं। अभिव्यक्ति के नाम पर सत्ता का नाटक लोकतंत्र को खोखला बना रहा है। सवाल उठता है कि चुनावी मौसम में ही दलबदल का बाजार क्यों सज जाता है। टिकट कटने पर ही विचारधाराएं अछूत क्यों हो जाती हैं। राजनीति का जब जनसेवा है तो वह सौदा क्यों बन जाती है। क्या अभिनेता, अभिनेत्री, खिलाड़ी, संगीतकार, साहित्यकार, पत्रकार, प्रशासनिक अफसर रहते हुए देश की सेवा नहीं की जा सकती? जनसेवा का रास्ता क्या राजनीति की गलियों से गुजरता है। पार्टी सेवा में जिंदगी खपाने वाले संघर्षशील कार्यकताओं को टिकट क्यों नहीं मिलता। गैर राजनीति क्षेत्र से आयाजित लोगों को राजनेता बनाने धंधा कब बंद होगा। राजनीतिक दलों का अपने विकास कार्यों, नीतियों और सिद्धांतों भरोसा क्यों उठ जाता है।
वह विभिन्न क्षेत्रों की चिर्चित हस्तियों को चुनावी मैदान में क्यों उतारते हैं, क्योंकि उन्हें अपने विकास, नीतियों, सिद्धांतों पर खुद भरोसा नहीं है, क्योंकि वह सत्ता में रहते हुए कुछ करते ही नहीं। दूसरी तरफ ऐसी हस्तियों को भी सत्ता सुख और उसका रौब भोगने का मौका मिलता है। यही वजह है कि चुनावी मौसम में हर रोज दल और दिल बदलते लोगों को देखा जा सकता है। इस तरह के आयाजित लोगों के कुछ घंटों में पार्टी की प्राथमिक सदस्यता दिला टिकट थमा दिया जाता है जबकि सालों संघर्ष करने वाला पार्टी कार्यकर्ता कतार से गायब दिखता है। यह लोकतांत्रित व्यवस्था में सबसे बड़ा संकट है। चुनाव आयोग को इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। इस तरह की नीति से लोकतंत्र कमजोर हो रहा है। जबकि राजनीति दल, दौलत और रसूख का व्यापार बन गयी है। जनंतंत्र पराजित है तो लोकतंत्र दमतोड़ता दिखता है।

डॉ राहुल सिंह
निर्देशक
राज ग्रुप ऑफ़ इंस्टिट्यूशन

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