सत्संग रूपी सरिता में स्नान करने से दुर्गुणों का होता है विनाश: चैतन्य जी
गोविन्द वर्मा
सिद्धौर, बाराबंकी। स्थानीय क्षेत्र के ग्रामसभा बीबीपुर में आयोजित श्रीमद् भागवत कथा का देव शक्तियों का विसर्जन, महापूर्णाहुति व भंडारे के साथ शानदार ढंग से समापन हो गया। इस आयोजन ने बीबीपुर गांव समेत पूरे क्षेत्र में एक अमिट छाप छोड़ दिया। समापन की पूर्व संध्या पर प्रवचन पंडाल में व्यास पीठ एवं श्रीमद भागवत ग्रंथ की आरती करके मुख्य यजमान संजय सोनी एवं पुष्पा सोनी द्वारा सपत्नीक पूजन अर्चन संपन्न किया गया।
चिन्मय मिशन से पधारे ब्रह्मचारी स्वामी कौशिक चैतन्य जी महाराज ने कहा कि ‘मनुष्य जीवन में कोई एक सच्चा और अच्छा मित्र मिल जाए तो जीवन की सर्वोच्च उपलब्धि है’, भगवान राम ने सुग्रीव को अपना मित्र बनाया था, प्रभु राम ने सुग्रीव की मुसीबत को दूर करने का वचन भी दिया था। सखा सोच त्यागहुँ बल मोरे की भांति श्री कृष्ण के सच्चे बचपन के मित्र विप्र सुदामा थे। मित्रता के बीच धन, वैभव का अहंकार मन में नहीं आना चाहिए। सुखदेव जी महाराज परीक्षित से विप्र सुदामा की कथा सुनाते हुए कहते हैं कि सुदामा के मित्र कृष्ण द्वारकाधीश बन गए थे। विपन्नता के कारण सुदामा काफी गरीब थे। एक समय की बात है कि सुदामा गरीबी के दिनों से गुजर रहे थे। 3 दिनों तक भूखे प्यासे अपनी कुटिया में बैठे थे, खाने के लिए अन्न भी नहीं था। सुदामा की पत्नी सुशीला ने द्वारिकाधीश से मिलने के लिए कहा। सुदामा ने कहा -सुशीला मित्र के पास खाली हाथ नहीं जाना चाहिए। सुशीला बेबस थी, निराश और उदास थी। उसने 3 घरों में एक-एक मुट्ठी चावल भीख मांग कर इकट्ठा करके पोटली में सुदामा को दे दिया। उस पोटली को लेकर सुदामा अपने बचपन के सखा कृष्ण से मिलने के लिए द्वारिका पुरी गेट पर पहुंच गए।
उन्होंने बताया कि द्वारपालों से संदेश भेजा कि कृष्ण से कह दो उनके बचपन का मित्र सुदामा मिलने आया है। उस समय माता रुक्मणी के साथ द्वारिका में कृष्ण बैठे थे तुरंत दौड़ पड़े। सुदामा जी को गले लगाते हुए हाथ पकड़ कर अपने आसन पर बैठाकर आदर सत्कार किया, अपने अश्रुओं के जल से सुदामा के चरण धोए थे। ‘देखि सुदामा की दीन दशा करुणा करके करुणानिधि रोए पानी परात को हाथ छुयो नहीं, नैनन के जल से पग धोये, भगवान जब देते हैं तो छप्पर फाड़ कर देते हैं। कृष्ण ने मित्रवत भाव से सुदामा से कुछ खाने के लिए मांगा, उस समय सुदामा भाव विह्वल हो गए ,सोचने लगे- कहां मैं गरीब ब्राह्मण और मेरे मित्र कृष्ण द्वारिका पुरी के राजा है। कृष्ण अंतर्यामी थे, उन्होंने सुदामा की पोटली को ले लिया, उसमें से दो मुट्ठिया चावल खाकर दो लोकों को दे दिया, तीसरी मुट्ठी जैसे ही खाने लगे, माता रुक्मणी ने हाथ पकड़ लिया कहा- प्रभु एक लोक तो बचा लीजिए। उसी समय सुदामा की कुटिया राजमहल बन गई और पत्नी सुशीला महल की रानी बन गई थी।
कथा को व्यास पीठ से मृदुल वाणी में रसपान कराते हुए श्री कौशिक चैतन्य जी ने कहा कि- आत्मा अजर है, अविनाशी है, शरीर छूट जाता है लेकिन आत्मा विद्यमान रहती है। प्रारब्ध रूपी कर्म का जब तक वेग रहता है तब तक यह शरीर रहता है। यह जीवन क्षणभंगुर है। साधक को संसार रूपी निहाई पर दृष्टि नहीं रखनी चाहिए। आत्मा पर चेतना पर दृष्टि रखनी चाहिए, जीवात्मा कुछ समय के लिए एक शरीर छोड़कर दूसरे शरीर में प्रवेश कर जाती है। श्री मद भागवत में अट्ठारह हजार श्लोक है, 335 अध्याय हैं, द्वादश स्कंध हैं।
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