सत्य ज्ञान मिलै कहां जहां चर्म देखै वृन्द
वाणी सुनि शून्य भाव ज्ञानी जलने लगे।
द्वादश किशोर वय अष्टावक्र निरखि सो
सभामध्य ज्ञानी जन कोप करने लगे।
धृष्टता बिलोकि बाल शांत भाव मिथिलेश
शब्द प्रतिकूल बाल हेतु पूंछने लगे।
शांतचित्त ॠषि सुत दृढ़ भाव उर लिये
जनकभिमुख अष्टावक्र कहने लगे।।
वक्र प्रसादहिं होत भले नभ होत न वक्र सदा सब मानै।
कुम्भ फुटै नहिं ब्योम फटै, जड़ आत्म स्वरूप कहाँ पहिचानै।
मूढ़ विलोकत गात स्वरूप जो आत्म स्वरूप कहां वह जानै।
ज्ञान गिरा सुनि विस्मय भाव विदेह कियो तब प्रश्न सयानै।।
कालचक्र किमि रूप शयन काल दृग बन्द नहिं।।
कौन बढ़ै अति वेग हृदयहीन केहिं नाम जग।।
मीन शयन दृग खोलि करि, कालचक्र नहिं गान।
नदी बढ़त अति वेग पुनि हृदयहीन पाषान।।
सुनि समाधान बिलोकि अष्टावक्र सब तेहिं सिर नये।
शास्त्रार्थ अनुमति दीन्ह जनकहिं,मुदित मन बालक भये।
विद्वान राज समाज बन्दी आइ तेहिं अवसर कहे।
शास्त्रार्थ महं जेहिं जय पराजय दण्ड तासु नियत रहे।।
राजसभा निज ज्ञान सो पूजित सकल जनेश।
वरूण तनय बन्दी सुयश शुचि कीरति चहुं देश।।
अग्नि एक बहु रूप तेहिं बन्दी प्रश्नहिं कीन्ह।
भानु एक सुरराज यम कर्म विविध बहु दीन्ह।।
एक तीन अरू पंच सम बन्दी प्रश्न विधान।
द्वय त्रय पंच समेत बहु ऋषि सुत दीन्हेउ ज्ञान।।
बन्दी पराजय मानि अष्टावक्र मुनि शरणहिं गयो।
मुनि क्षमा बन्दी कीन्ह तात विमुक्त पुनि बन्धन कियो।
पत्नी सुजाता संग अष्टावक्र फिरि आश्रम गयो।
ऋषि श्वेत उद्दालक समेत मुनीश मन हर्षित भयो।।
रचनाकार— डाॅ. प्रदीप दूबे
(साहित्य शिरोमणि)
शिक्षक/पत्रकार
आधुनिक तकनीक से करायें प्रचार, बिजनेस बढ़ाने पर करें विचार हमारे न्यूज पोर्टल पर करायें सस्ते दर पर प्रचार प्रसार।