चाह जल्दी बड़े होने की…!
कितनी जल्दी होती है….?
हमें बड़े होने की….
अपने हाथ-पाँव पर खड़े होने की
बचपन में….आँगन में….
बैठी हुई माँ के सामने…
पैरों से उचक कर…खड़े होकर…
कभी बाप के कंधे या
सिर पर बैठकर तोतली भाषा में
बड़े होने का आनन्द…..
नातेदारी-रिश्तेदारी के बच्चों
या फिर यार-दोस्तों के बीच…
जबरदस्ती बड़े होने का नाटक
कभी कंधों से लंबाई नाप लेना तो
कभी माथे से नाप लेना….
कभी किसी अपने से अपनी बातें
मनवा ही लेना और खुद को
बड़ा घोषित करा लेना….
मित्रों शायद बचपन खुद ही
यह खेल हमको खिला रहा था
क्योंकि सच तो यही है कि
हम तो उसी दिन बड़े हो गए थे
जब हम पाँव पर अपने
खड़े हो गए थे…..
खड़े होकर जब हम
खुद ही आँसू अपना पोंछने लगे
उस दिन से तो दुनिया के लिए
हम बड़े हो गए……
मित्रों समय तो…..!
स्वयमेव गतिमान है….
क्रमिक रूप से बड़े होना
जीवित होने की पहचान है….
पर गौरतलब है मित्रों कि…
त्वरित बड़े होने के इस दौर में
समय के साथ…..मन में….
बुद्धिमानी का पुट भी
पड़ने लगा है….घुलने लगा है….
पैमाना….बड़े होने का…..
अब बदलने लगा है….
तन-मन से हटकर…धन से…
बड़ा होने में मन रमने लगा है
बड़े से भी बड़ा होना है….!
मन अब ऐसा सोचने लगा है…
बड़े होने के इस दौर में,
कोई मतलब नहीं….
कौन किसको,कितना,कैसे और
कब-कब ठगा है……?
बदलते दौर की बिडम्बना है मित्रों
हम यह मानकर……
बड़े हो रहे हैं कि…इस जगत में…
ना कोई अपना है,ना कोई सगा है
रचनाकार: जितेन्द्र कुमार दुबे
अपर पुलिस अधीक्षक
जनपद-कासगंज।
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