बहुत सुखी थे, बहुत मगन थे…
बहुत सुखी थे, बहुत मगन थे…
बहुत सुखी थे, बहुत मगन थे
हम अपने… छोटे से गाँव में….
मस्त रहा करते थे… हम वहाँ पर
बड़े-बूढों की आशीषों की छाँव में
बड़ा सा आँगन… बड़ा परिवार….
खूब आनन्द और प्यार-दुलार
दादा-दादी, बुआ-चचा संग मँगरू
सब करते थे दिन भर मनुहार…
न कोई मतभेद…. न कोई मनभेद
यहाँ न कोई पड़ता…कभी भी….
दुनियावी झाँव-झाँव में…..
बहुत सुखी थे, बहुत मगन थे
हम अपने….छोटे से गाँव में….
गड़ जाते जब काँटे हमको पाँव में
निकाल लिया करते थे मिलकर
हम सब बरगद-पीपल की छाँव में
खुश हो जाते थे हम सब,
बारिश में… कागज वाली नाव में..
मन खूब रमाते हम सब,
मुंडेर पर कौवे की काँव-काँव में
घलुए में टॉफी-बिस्कुट मिलती,
गाँव की हर एक दुकान में….
इतना सारा अपनापन होता
सहुआइन और साव में…..
बहुत सुखी थे, बहुत मगन थे
हम अपने….छोटे से गाँव में….
कुछ ऐसा दिखता
गाँव-देश का प्रेम परस्पर
सब भौजाई रहती अपने भाव में..
देवर ससुरे कम कहाँ थे,
रहते थे सब अपने-अपने दाँव में..
घर का मुखिया…रखे अलग रवैया
रहता अपनी मूछों की ताव में….
फिर भी…. सुनो रे भैया….
बहुत सुखी थे, बहुत मगन थे
हम अपने…. छोटे से गाँव में….
बाग-बगीचा, नदी-नार और
ताल-तलैया, ऊसर-बंजर
सब थे मेरे गाँव में….
खूब खेलते गोली-कंचा,
गुल्ली-डण्डा, लड़ते नूरा कुश्ती,
मस्ती लेते नदी की डूब-डाब में….
सच है… जीवन मेरा कभी न बीता
कैसे भी… किसी अभाव में….
लाख बुराई कर ले कोई
पर यह सच है मेरे भाई….
कोई नहीं मिलेगा ऐसा गाँव में
जो नमक लगाए किसी के घाव में
सब सज्जन, निर्मल मन, खुशदिल..
कोई न रहता ताम-झाम में….
बहुत सुखी थे, बहुत मगन थे
हम अपने…. छोटे से गाँव में….
नहीं मिल रही खुशी हमें अब
गाँव से दूर… शहर वाली जॉब में..
कोई यहाँ नहीं मुझको दिखता
गाँव वाले रूआब में….
गाँव हमें याद आता है मित्रों….
दिन में-रात में,
और सपने एवं ख्वाब में…..
बहुत सुखी थे बहुत मगन थे
हम अपने…. छोटे से गाँव में….
रचनाकार—— जितेन्द्र दुबे
अपर पुलिस अधीक्षक
जनपद-कासगंज
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