सत्य की जीत….
न्याय के मंदिर में….
हर ओर लिखा पाता हूँ,
कानून अन्धा है…..
शायद सच भी है… क्योंकि….
मुकदमा लड़ने वाले जानते है कि
सही क्या है …! गलत क्या है…!
फिर भी अपनी श्रेष्ठता के लिए
दोनों बड़े से बड़ा वकील करते हैं,
ढेर सारे सबूत इकट्ठे करते हैं,
झूठे-सच्चे और कुछ मनगढ़ंत भी
उद्देश्य दोनों का एक ही होता है
कल्पित विजय की प्राप्ति…..
इस दौरान… जाने-अनजाने में…
छला जाता है… सत्य….
निश्चित तौर पर…सत्य के ऊपर…
असत्य का आवरण.. मजबूती से..
लैमिनेट किया जाता है,
एक प्रबुद्ध वर्ग द्वारा ही…..
ऐसा क्यों….?
क्या उनका जमीर….
बस आजीविका तक ही सीमित है
रात की नींदें क्यों नहीं उड़ा देती
उनकी ऐसी बहसें और दलीलें
मित्रों यह विचार का विषय है
वकील-मुवक्किल दोनों के लिए
जब समाज का अलमबरदार ही,
आकाशवृत्ति में जी रहा हो.. और..
आत्म चेतस न हो…
यह तो घातक है… समाज के लिए
और राष्ट्र के लिए भी….
इसीलिए मैं अक्सर कहा करता हूँ
कि कानून तो दीवारों पर,
लिखा पढ़ी में अन्धा है…..
पर आज के हमारे बुद्धिजीवी…
अकल/दिमाग/बुद्धि से बंध्या हैं
चतुर-चालाकी के इस दौर में,
सत्य और सत्य की जीत…..!
सुखांत कल्पना है… और हाँ…….
यदि सत्य परेशान होकर,
जीत भी जाए…. तब भी….
वह पराजय ही है…..
ऐसे में यह सोचने का विषय है कि
सत्य की जीत,
नैसर्गिक क्यों नहीं है….!
सत्य की जीत,
नैसर्गिक क्यों नहीं है….!
रचनाकार— जितेन्द्र दुबे
अपर पुलिस अधीक्षक
जनपद-कासगंज
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