समाज में एकत्व भाव का निर्माण ही सामाजिक समरसता

समाज में एकत्व भाव का निर्माण ही सामाजिक समरसता

सामाजिक समरसता का कार्य बस इस बिखरे समाज के भीतर एकत्व भाव का निर्माण करना है, इस एकत्व भाव की कमी के कारण हम वर्षों ग़ुलामी की ज़ंजीरों में जकड़े गये। हम जानते हैं कि मुट्ठी भर लुटेरों ने भारत के इसी एकत्व भाव की कमी को देख भारत को लूट कर जाने के विचार को त्याग, यहाँ का शासक बनना स्वीकार किया। ये भी बड़े शर्म की बात है कि हम तो ग़ुलामों के भी ग़ुलाम बन गए। वर्षों भारत पर ग़ुलाम वंश का शासन रहा, क्या ये सत्य किसी से छिपा है। हमारी संगठित हिन्दू शक्ति ने जहाँ हमें दुनिया में विश्व गुरु के आसन पर बैठाया, वहीं हमारी जातियों के विभाजन ने हमें वर्षों ग़ुलामी की काल कोठरी में धकेला हैं, इसलिए हम सभी को मानव निर्मित भेदों को भुला कर, समरस भारत के निर्माण हेतु कृत संकल्पित हो, सभी को समान रुप से अवसर मिले, संसाधन मिले, इसकी और प्रयास करना है। वहीं समाज के सम्पन्न वर्गों को नीचे झुक कर जो पीछे छूट गए, उनका हाथ पकड़ आगे बढ़ाने की आवश्यकता है। ये ही सामाजिक समरसता है।
समाज के लिए जहाँ व्यक्ति एकत्रित होते हैं, वहाँ उनमें पारस्परिक सम्बन्ध अनिवार्य रूप से होने चाहिए। इसी समाज को अगर समझा जाए तो समाज संस्कृत के दो शब्दों सम् और अज से मिलकर बना है। सम् का अर्थ इकट्ठा व अज का अर्थ एक साथ रहना। इस प्रकार एक साथ रहने वाले समूह को समाज कहते हैं, यानि समाज बन्धु भाव पर एकत्रित एक आदर्श स्थिति है। ऐसे ही समाज में सब समरस भाव से रहते हैं, सभी मनुष्य अपने जैसा सबको मान, सबके साथ अपने परिवार के सदस्य की भाँति ही व्यवहार करें यही तो है सामाजिक समरसता।
महात्मा बुद्ध ने सामाजिक समरसता को समझाया है। बुद्ध कहते हैं– “जिस कारण मुझे दु:ख होता है, पीड़ा पहुँचती है, उसी कारण दूसरों को भी दु:ख होता है, किसी ने मुझे गाली दी तो मुझे दु:ख होता है, इसीलिए मुझे भी किसी को गाली नहीं देनी चाहिए। किसी ने मेरे घर पर चोरी की तो मुझे दु:ख होता है तो मुझे भी कहीं चोरी नहीं करनी चाहिए। किसी ने झूठी गवाही देकर मुझे फंसाया तो मुझे दु:ख होता है, मुझे भी यह काम किसी और के साथ नहीं करना चाहिए। जैसा मैं, वैसा अन्य, का यही अर्थ होता है”।
इसको अधिक सरल रूप में समझा जाए तो “जैसा मैं, वैसे अन्य”, इस भाव के आधार पर परस्पर व्यवहार होना, इसी को समरसता कहते हैं। समरसता व्यवहार में लाने के लिए इसके मूल हेतु को जीवन में उतारना होगा। अगर हम इसको अपने आचरण में आत्मसात् नहीं करते तो ये सारी बातें बेकार सिद्ध होती हैं। जब मानव रचना एक ही तत्व से हुई है तो भेद किस बात का। अगर भेद है तो ये सैद्धांतिक रूप से उचित नहीं है। हमें ये समझना होगा कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, उसकी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति समाज में ही होती है। समाज में सभी एक दूसरे के प्रतिपूरक भी हैं। दीनदयाल उपाध्याय जी कहते हैं कि “मनुष्य सृष्टि का एकाकी और एकांगी प्राणी नहीं है। वह अपने अस्तित्व से ही दूसरों के साथ जुड़ा है। परस्पर संलग्नता, परस्पर पूरकता, परस्परावलंबन यह तीन विषय समरस व्यवहार के तीन पहलू होते हैं। हम परस्परावलंबी हैं, इसको समझना चाह अनाज का एक दाना भी व्यक्ति घर में निर्माण नहीं कर सकता, खुद का वस्त्र भी वह बुन नहीं सकता। ऐसे सैकड़ों काम समाज के हजारों व्यक्ति करते रहते हैं, यही परस्परावलंबन है. इसे ध्यान में रखकर हमें परस्पर जीवन देना चाहिए, एक—दूसरे के सुखों-दु:ख को बांट कर जीना चाहिए। समाज में कैसे उस स्थिति का निर्माण हो जिसमें व्यक्तियों के व्यवहार, उनके आचरण में समरस होने का भाव बीज रोपित हो सके और वह कैसे एक विशाल वृक्ष बने, जिसमें जाति निम्न-उच्च का विचार, जाति आधारित ही विवाह, खान-पान निषेध, सब समाप्त हो जाए. ऐसे सामाजिक प्रयास ही तो सामाजिक समरसता का हेतु हैं।
सामाजिक समरसता शब्द वैसे तो अपने अर्थों में बहुत प्राचीन है लेकिन फिर भी महाराष्ट्र में जिस समय दलित पेंथर आंदोलन चल रहा था, उसी समय समाज में सभी मनुष्य सम्मान एवं अधिकार प्राप्त करें, वह भी बिना किसी संघर्ष के…. इसे लेकर 70 के दशक में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ही कुछ स्वयंसेवकों ने सामाजिक समरसता मंच प्रारंभ किया जिसमें तृतीय सरसंघचालक बाला साहब देवरस जी एवं दत्तोपंत ठेंगडी जी की प्रेरणा निहित थी। मुंबई महानगर के तत्कालीन कार्यवाह रमेश पतंगे जी इसके मुख्य सूत्रधारों में एक थे जो स्वयं वंचित वर्ग से आते थे।
सामाजिक समरसता शब्द वैसे तो अपने अर्थों में बहुत प्राचीन है लेकिन फिर भी महाराष्ट्र में जिस समय दलित पेंथर आंदोलन चल रहा था, उसी समय समाज में सभी मनुष्य सम्मान एवं अधिकार प्राप्त करें, वह भी बिना किसी संघर्ष के.. इसे लेकर 70 के दशक में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ही कुछ स्वयंसेवकों ने सामाजिक समरसता मंच प्रारंभ किया जिसमें तृतीय सरसंघचालक बाला साहब देवरस जी एवं दत्तोपंत ठेंगडी जी की प्रेरणा निहित थी। मुंबई महानगर के तत्कालीन कार्यवाह रमेश पतंगे जी इसके मुख्य सूत्रधारों में एक थे जो स्वयं वंचित वर्ग से आते थे।
मंच का ध्येय था तो बस इतना की समाज में व्याप्त तमाम प्रकार की विषमता को समाज से निर्मूल कर एक सशक्त, वैभवपूर्ण एवं समता से युक्त राष्ट्र का निर्माण करना। जिस समाज रचना की सद्इच्छा हमारे प्राचीन ऋषियों ने की थी, जिसका समय-समय पर सामाजिक प्रकटीकरण विभिन्न महापुरुषों द्वारा होता रहा। महात्मा बुद्ध, आदि-शंकराचार्य से लेकर कबीर, रविदास, गुरु नानक, संत सरलादास, उत्तरपूर्व के शंकर देव, केरल के नारायण गुरु या आयंकली हो अथवा ज्योतिबा और सावित्री बाई फुले, महादेव गोविन्द रानाडे एवं संत गाडगे, डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार अथवा बाबा साहब डॉ. आम्बेडकर हो।
सामाजिक समरसता का कार्य बस इस बिखरे समाज के भीतर एकत्व भाव का निर्माण करना है, इस एकत्व भाव की कमी के कारण हम वर्षों ग़ुलामी की ज़ंजीरों में जकड़े गये। हम जानते हैं कि मुट्ठी भर लुटेरों ने भारत के इसी एकत्व भाव की कमी को देख भारत को लूट कर जाने के विचार को त्याग, यहाँ का शासक बनना स्वीकार किया। ये भी बड़े शर्म की बात है कि हम तो ग़ुलामों के भी ग़ुलाम बन गए। वर्षों भारत पर ग़ुलाम वंश का शासन रहा, क्या ये सत्य किसी से छिपा है। हमारी संगठित हिन्दू शक्ति ने जहाँ हमें दुनिया में विश्व गुरु के आसन पर बैठाया, वहीं हमारी जातियों के विभाजन ने हमें वर्षों ग़ुलामी की काल कोठरी में धकेला है, इसलिए हम सभी को मानव निर्मित भेदों को भुलाकर समरस भारत के निर्माण हेतु कृत संकल्पित हो, सभी को समान रुप से अवसर मिले, संसाधन मिलें, इसकी और प्रयास करना है। वहीं समाज के सम्पन्न वर्गों को नीचे झुक कर जो पीछे छूट गए, उनका हाथ पकड़ आगे बढ़ाने की आवश्यकता है। ये ही सामाजिक समरसता है।

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