भगवान विष्णु के 24वें अवतार थे भगवान कार्तवीर्यार्जुन

भगवान विष्णु के 24वें अवतार थे भगवान कार्तवीर्यार्जुन

स्मृति पुराण एवं मत्स्य पुराण में वर्णन है कि भगवान विष्णु के 24वें अवतारों में से चक्र सुदर्शन अवतार भगवान कार्तवीर्यार्जुन थे, इसलिए कोई युद्ध में नहीं हरा सका था। महाराजा कार्तवीर्य का विवाह काशी नरेश सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र की पुत्री राजकुमारी पद्मनी से हुआ। पद्मनी धर्म-परायण पतिव्रता पत्नी थी माता सती अनुसुइया ने पद्मनी एवं कार्तवीर्य को अनुष्ठान ब्रज-धारण कर तपस्या करने को कहा था। तपस्या करने पर आराध्य देव ने प्रसन्न होकर इच्छित वरदान दिया कुछ समय बाद ही रानी पद्मनी ने गर्भ धारण किया। माता सती अनुसुइया ने गर्भस्थ शिशु को सद्-धर्म की शिक्षा दी थी। कार्तिक मास शुक्ल पक्ष सप्ती श्रवण नक्षत्र के शुभ मुहूर्त दिन रविवार सतयुग के अंतिम पहर एवं तेत्रायुगके उदय-काल में महाराजा कार्तवीर्य-महारानी पद्मनी ने अलौकिक तेज से परिपूर्ण एक सुन्दर बालक को जन्म दिया जिनका नाम कार्तवीर्यार्जुन रखा गया। आगे इन्हें हजारों नाम से पुकारा जाने लगा जैसे- श्री राजराजेश्वर कार्तवीर्यार्जुन, सहस्त्रार्जुन, सहस्त्रावाहु आदि से तीनों लोकों में विख्यात हुए धार्मिक ग्रंथों एवं पुराणों में अनेक गाथाएं से परिपूर्ण वर्णन हैं। एक छोटे से लेख में सभी मुख्य घटनाओं का वर्णन करना सम्भव नहीं है। कुछ अति महत्वपूर्ण वर्णन है।

भगवान् दत्तात्रेय की उपासना करके अनेक वरदान प्राप्त किया कार्तवीर्यार्जुन ने योगी हुए तथा अनेक सिद्धियां प्राप्त कर अपने प्रजा के हित मे कार्य करने से चक्रवर्ती सम्राट बने। श्री हरिवंश पुराण में वर्णन है कि- तृषितेन कदाचित स भिक्षितच्श्रित्रभिनुना। स भिक्षामदादद् वीररू सप्तव्दीपान विभावसोरू।।38 पुराणि ग्रामधोषांच्श्र विषयांच्श्रैव सर्वश रू। ज्वालामुखी तस्य सर्वाणि चित्रभानुर्दिधक्षया।।39
स तस्य पुरुषेन्द्रस्य प्रभावेण महात्मनरू। ददाह कार्तवीर्यस्य शैलांच्श्रैव वनानि च।।40
अर्थात भगवान अग्नि देव की ऊर्जा क्षीण हो रही थी, इसलिए महाराजा कार्तवीर्यार्जुन से भिक्षा मांगी (कहा जाता है कि सूर्यदेव में ऊर्जा की कमी हो रही थी। वनों में अनेक औषधीय पेड़-पौधे खनिजों से परिपूर्ण थे। उसी से ऊर्जा लेने के लिए भिक्षा मांगने गए थे, उसी बहाने महाराज कार्तवीर्यार्जुन की परीक्षा भी ले रहे थे) तब महाराज ने सातों दीपों, नगर गांव सारा राज्य भगवान अग्निदेव को भिक्षा में दे दिया। अग्निदेव सर्वत्र प्रज्वलित हो उठे और पुरुष प्रवर महात्मा कार्तवीर्यार्जुन के प्रभाव से समस्त पर्वतों एवं वनों को जलाने लगे। अग्नि ने दूसरे वनों की भांति वशिष्ठ मुनि की सूनी पड़ी आश्रम को भी जलाकर राख कर दिया।

भगवान अग्निदेव को वनों के जलने से औषधियों से ऊर्जा प्राप्त हो गई, वह चले गए। जब वशिष्ठ मुनि को सूना आश्रम जलने की खबर मिली तो वह क्रोध में आकर बिना सोचे समझे कार्तवीर्यार्जुन को श्राप दे दिया। (जबकि मानव हित में वन को जलाया गया था) तुम्हारे भुजाओं में जो ताकत है, वह कोई भृगवंशी तुम्हारी भुजाओं की ताकत क्षीण कर देगा। जब यह बात भगवान अग्निदेव को मालूम हुआ तो उन्होंने उसी समय से कार्तवीर्यार्जुन एवं उसकी राजधानी महिष्मति की सुरक्षा स्वयं करने लगे, क्योंकि महाराजा कार्तवीर्यार्जुन ने भिक्षा मांगने पर ही भगवान सूर्यदेव को दिया था। उसी समय भगवान सूर्यदेव महिष्मति एवं भगवान कार्तवीर्यार्जुन की रक्षा करने लगे।
उक्त वर्णन कालीदास जी ने भी रघुवंश महाकाव्य का इन्दूमती स्वयंवर प्रसंग है। न तस्य वित्तनाशोऽस्ति नष्टं प्रतिलभेच्च सेरू। कार्तवीर्यस्य तो जन्म कीर्तयेदिह नित्यशरू।।56 अर्थात जो प्रतिदिन कार्तवीर्यार्जुन के जन्म के वृत्तांत कहता एवं सुनता है, उसके धन का नाश नहीं होता है और उसकी खोई हुई वस्तुएं भी मिल जाती है। नारद उवाच- न नूनं कार्तवीर्यस्थ गतिं यास्यन्ति पार्थिवारू। यज्ञैर्दानैस्तपोभिर्वा विक्रमेण श्रुतेन च।।20 स हि सप्तसु व्दीपेषु खड्गी उर्मी शरासनी। रथी व्दीपाननुचरन योगी संदृश्यते नृभिरू।।21 अनष्टद्रव्यता चौन न शोको न च विभ्रमरू। प्रभावेण महाराज्रू प्रजा धर्मेण लक्ष्यरू।।22 पच्ञाशीतिसहस्त्राणि वर्षाणां वै नराधिपरू। स सर्वरन्त्रभाक सम्राट् चक्रवर्ती बभूवु है।।23

नारद जी कहते हैं कि अन्य राजा लोग यज्ञ, दान, तपस्या, पराक्रम और शास्त्र ज्ञान में कार्तवीर्यार्जुन की स्थिति को नहीं पहुंच सकते। कार्तवीर्यार्जुन वह योगी था, इसलिए मनुष्य को सातों दीपों में ढाल, तलवार, धनुष, बाण और रथ लिए सब तरफ दिखाई देता था। धर्म पूर्वक प्रजा की रक्षा करने वाले महाराज कार्तवीर्यीर्जुन के प्रभाव से किसी का धन नष्ट नहीं होता था। न किसी को शोक होता और न ही कोई भ्रम में पड़ता। कार्तवीर्यार्जुन 85 हजार वर्षों तक सब प्रकार के रत्नों से संपन्न चक्रवर्ती सम्राट रहा।
स्वयं परशुराम जी ने माता सीता के स्वयंवर के समय में भगवान श्रीराम द्वारा टूटी हुई धनुष के प्रसंग में परशुराम ने लक्ष्मण जी से संवाद करते हुए कहा- भुजबल भूमि भूप बिनु किन्हीं। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही।। सहस्त्रबाहु भुज छेदन हारा। परसु बिलोकु महीप कुमारा। इसका वर्णन तुलसीकृत रामायण के बालकांड के 244/245 पर भगवान श्रीराम, लक्ष्मण परशुराम संवाद में पढ़ा। देखा जा सकता है कि परशुराम जी ने स्वयं सिर्फ भुजाओं का छेदन करने की बात कही है। शेषावतार लक्ष्मण जी से यह नहीं कहा कि मैने सहस्रबाहु का वध किया है।

तुलसीदास जी ने स्वयं रामचरितमानस में उल्लेख किया है। अगर यह कथन गलत है तो तुलसीदास जी की रामायण ही गलत है? अगर रामायण सही है तो परशुराम द्वारा वध भ्रामक एवं निराधार है। कालिदास ने भी रघुवंश महाकाव्य में इस बात का उल्लेख किया है कि- अकार्य, चिंता, समकालमेव, प्रादुर्भवच्चाप धररू पुरस्तात। अन्तः शरीरेष्वपि यरू प्रजानां प्रत्यादिदेशाविनयं विशेषता।। भगवान् कार्तवीर्यार्जुन अधर्म की बात सोचने वालोें के समक्ष धनुष-बाण सहित स्वंय खड़े होकर उनके दुष्प्रवृत्रि का निवारण कर देते थे। कालिदास जी के कथन की पदम् पुराण में किये गये उल्लेख की पुष्टि होती है। पुराणों में वर्णन है कि- श्री दत्तो, नारदो, व्यासो, शुकन्य पवनात्मजरू। गोरक्षरू कार्तवीर्यश्च, त्वित्येते स्मृति गाभिनरू।। अर्थात श्री दत्तात्रेय, नारद जी, व्यास जी, शुकदेव जी, हनुमान जी, गोरक्षनाथ जी और कार्तवीर्यार्जुन ये सातों स्मृतिगामी देव कहे गए हैं, क्योंकि यह देवता स्मरण करने मात्र से ही आराधकों के कष्टों का हरण करते हैं।

कबीर दास के बीजक 8वें शब्द की 11वीं पंक्ति में वर्णित है। परशुराम क्षत्रिय नहीं मारे छल माया किन्हीं। अर्थात परशुराम छल छद्म मायाजाल मायावी उपाय करने के बाद भी पराजित नहीं कर सके। ’वर्तमान में इसका साक्ष्य महेश्वर स्थित सहस्त्रबाहु की समाधि पर मंदिर है। इससे स्पष्ट है कि सहस्त्रबाहु के पुत्र जयध्वज के राज्याभिषेक के बाद तपस्या योग के बाद समाधि ली थी, इसलिए यह समाधि स्थल मंदिर कहलाता है। आज भी सभी समाज के लोग मन्नत मानते हैं। मन्नत पूर्ण होने पर देशी घी का चिराग जलाने हेतु देशी घी दान करते हैं जो निरंतर चिराग जलता रहता है। सहस्त्रबाहु के संघार की मान्यता का खंडन करते हुए महाकवि कालिदास द्वारा लिखित रघुवंश महाकाव्य का इंदुमती स्वयंवर प्रसंग है। इनके पद 6/42 जिसका भावार्थ है कि सहस्त्रबाहु ने परशुराम के फरसे की तीखी धार को भी अग्निदेव की सहायता से कमल पत्र के कोमल धार से भी कम था, क्योंकि इनकी राजधानी महेश्वर की रक्षा स्वयं अग्निदेव खुद करते थे, इसलिए महेश्वर में सहस्त्रवाहु को हराना असंभव था।

एक अन्य घटना का विवरण यह है कि महाप्रतापी राक्षस रावण को महाराजा कार्तवीर्यार्जुन ने बन्दी बना लिया था। जब रावण के नाना महर्षि पुलस्ति को पता चला कि क्षण भर मे महाराजा कार्तवीर्यार्जुन ने रावण को बन्दी बना लिया है। वह कार्तवीर्यार्जुन के पास पहुंच गए महाराज ने आदर-भाव से सेवा सत्कार किया पुछा कि क्या आदेश है। महर्षि पुलस्ति ने कहा कि- नरेन्दाम्बुजपत्राक्ष पूर्ण चंद्रनिभानन्। अंतुले ते बल येन दशाग्रीवस्त्वयाजितरू।। ’अर्थात पूर्ण चन्द्रमा के समान मनोहर मुख वाले कमल नयन नरेश तुम्हारे बल की कहीं तुलना नहीं है, क्योंकि तुमने दशाग्रीव को जीत लिया है। जिस रावण के भय से समुद्र, वायु चंचलता को छोड़कर उसकी सेवा में उपस्थित रहते, उस रावण को महाराज सहस्त्रावाहु संग्राम में जीतकर बंदी बनाई अपने नाम की कीर्ति पताका तीनों लोकों में फहराई। महर्षि पुलस्ति जी के कहने पर रावण को रिहा कर दिया।

कुछ पुराणों में अलग-अलग मत हैं। देवी भागवत पुराण में उल्लेख है कि सहस्त्रावाहु और परशुराम में युद्ध हुआ ही नहीं। किसी ग्रंथों में सहस्त्रार्जुन के पुत्रों एवं भृगुवंशियों द्वारा धन की खींचातानी के कारण युद्ध हुआ था। जगदग्नि ऋषि का वध सहस्रवाहु के पुत्रों द्वारा हुआ था। बह्म वैवर्त पुराण के अनुसार युद्ध में सहस्त्रार्जुन ने अनेकों बार परशुराम को मूर्छित किया था। सहस्त्रार्जुन के हाथ में सुरक्षा कवच था एवं भगवान विष्णु के 24वें अवतारों में से एक थे।

वायु पुराण का अप्रकाशित खंड महिष्मति महात्म के अध्याय नंबर 13 में वर्णित है। जब सहस्त्रार्जुन के 4 भुजा शेष थे तो अपने गुरु दत्तात्रेय का स्मरण किया तो भगवान दत्तात्रेय ने सहस्त्रबाहु को स्मरण कराते हुए कहा कि चक्रा अवतार का स्मरण करो तो भगवान शंकर तुरंत प्रकट हो गये। सहस्त्रबाहु से बोले- जाओ नर्मदा नदी में स्नान करके आओ। जब सहस्त्रबाहु नर्मदा नदी से स्नान करके भगवान शंकर के सम्मुख आए तो भगवान शंकर ने उन्हें अपने मैं समाहित कर लिया। उसी स्थान पर आज श्री राज राजेश्वर भगवान सहस्त्रार्जुन का मंदिर का निर्माण हुआ है जो आज प्रमाण के तौर पर मौजूद है।

पुराणों के अनुसार 7 चक्रवर्ती सम्राटों में गणना की जाती है। भरत अर्जुन मांधातृ भागीरथ युधिष्ठिररू। सगरो नहुषश्च सत्तेत चक्रवर्तिनरू।। 1. भरत, 2. कार्तवीर्यार्जुन, 3. मानधाता, 4. भगीरथ, 5. युधिष्ठिर, 6. सगर एवं 7. नहुष नाम बताए गए हैं। युद्ध में अगर कार्तवीर्यार्जुन पराजित हुए होते हैं या उनका वध किया गया होता तो चक्रवर्ती सम्राटों में भगवान कार्तवीर्यर्जुन की गणना नहीं की जाती। इससे भी प्रमाणित होता है कि उनका वध नहीं हुआ था एवं शास्त्रों के अनुसार जिस महापुरुष में 6 गुणों का समावेश हो। संपूर्ण ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान एवं अगर युद्ध में कार्तवीर्यार्जुन पराजित हुए होते तो धार्मिक ग्रंथों एवं पुराणों में छः गुणों का उनमें वर्णन नहीं किया गया होता तथा अवतारों में गणना नहीं होती। कार्तवीर्यार्जुन वैराग्य से परिपूर्ण थे ग्रंथों में भगवान विष्णु के अंश चक्रा अवतार कार्तवीर्यार्जुन को बताया गया है, इसीलिए भगवान के रूप में संबोधित किया जाता है। उपरोक्त लेख श्री राजराजेश्वर कार्तवीर्यार्जुन पुराण, श्री हरिवंश पुराण एवं अन्य पुराणों के मतानुसार लिखा गया है।

लेखक ध्रुवचंद जायसवाल
प्रदेश अध्यक्ष
अखिल भारतीय जायसवाल सर्ववर्गीय महासभा

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Read More

Recent