जीवन सुधा (भाग-9)
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गुरु वृहस्पति तथा शस्त्र भी वज्र था
स्वर्ग प्रभु की कृपा देव सैनिक किला
गज ऐरावत पराभव मिली इन्द्र को
भाग्य सन्मुख तो पुरुषार्थ मिट्दी मिला।
जानकी का हरण रूप सुन्दर अधिक
अति अहंकार दशशीश मारा गया
दान अति देने से बलि को बंधना पड़ा
इसलिए शास्त्रों ने अति को वर्जित किया।
रूप यौवन से सम्पन्न कुल श्रेष्ठ हो
विद्या से हीन जग में न शोभित कहीं
पुष्प किंसुक का होता है सुन्दर भले
गन्ध से हीन होने से जन प्रिय नहीं।
नारि का पतिधरम रूप कोकिल का स्वर
रूप विद्रूप का विद्या अरू ज्ञान है
रूप तापस का बस एक क्षमाशीलता
रूप काया में देखें जो नादान हैं।
प्राणि श्रमशील निर्धन न होता कभी
पूजा जप करने से पाप रहते नहीं
मौन रहने से होती लड़ाई नहीं
जो सजग रहते भयभीत होते नहीं।
शक्ति सम्पन्न का कार्य दुष्कर नहीं
ठाँव कोई वणिज दूर होते नहीं
होता परदेश नहिं ज्ञानी विद्वान का
जो हैं मृदुभाषी कोई पराया नहीं।
एक सुत जो सुधी व सदाचारी हो
सारे कुल को अकेले सुगन्धित करे
वंश का नष्ट गौरव हो कुपुत्र से
एक द्रुम अग्नि से जैसे जंगल जरे।
माता व्यभिचारिणी हो पिता बहुणी
पत्नी सुन्दर अधिक पुत्र यदि मूर्ख है
यह नियत चारों जीवन में दुख देते हैं
अपने होकर भी ए शत्रु सम होते हैं।
रचनाकार- डॉ. प्रदीप दूबे
(साहित्य शिरोमणि) शिक्षक/पत्रकार