घोषणा पत्रों तक सीमित रहा जलवायु परिवर्तन तो गम्भीर होंगे परिणाम

घोषणा पत्रों तक सीमित रहा जलवायु परिवर्तन तो गम्भीर होंगे परिणाम

अजित यादव
भारत में लोकसभा चुनाव-2024 के लिए मतदान प्रारंभ हो चुका है। इसी संदर्भ में सभी राजनैतिक पार्टियां जीत दिलाने वाले प्रत्याशियों के चयन के साथ ही उनकी जीत सुनिश्चित करने के लिए चुनावी सभाओं, रैलियों, मीटिंगों को आयोजित करने में व्यस्त हैं। प्रचार में पर्यावरण विषय प्रचार माध्यमों से लगभग नदारद दिखाई दे रहा है। आगे भी शायद दिखाई न देता रहे तो कोई आश्चर्य नहीं। वह भी तब जब चुनाव ग्रीष्म ऋतु में हो रहे हैं और इस ऋतु की शुरुआत में ही कई छोटे-बड़े शहर पानी की किल्लत से जूझते नजर आ रहे हैं। नदी, जलाशय, भूमिगत जल स्रोत दम तोड़ते दिखाई दे रहे हैं। तमाम इलाकों की जनता नलों से जल आपूर्ति के बजाय टैंकरों से जलापूर्ति पर निर्भर रहने के लिए मजबूर है। शुद्ध पेयजल के लिए पानी की बोतल पर निर्भरता बढ़ सकती है।
देश आत्मनिर्भर बने, विकसित राष्ट्र की सूची में स्थान प्राप्त करे तथा उसकी अर्थव्यवस्था विश्व की तीसरी अर्थव्यवस्था के लक्ष्य को शीघ्र हासिल करे यह हमारा लक्ष्य है किंतु पर्यावरण के नाश के साथ यह कैसे संभव है? राज्य के साथ आम नागरिकों का भी दायित्व है कि प्राकृतिक संपदा यानी जल-जंगल-जमीन जो एक दूसरे से जुड़े हुए हैं जो हमारे पारिस्थितिक तंत्र को संतुलित रख देश के प्रत्येक नागरिक के जीवन-जीविका की गारंटी सुनिश्चित करता है। भारत में दो प्राथमिक राष्ट्रीय दलों -भाजपा और कांग्रेस के लोकसभा चुनाव घोषणा पत्र जलवायु परिवर्तन और पर्यावरणीय गिरावट पर बढ़ती चिंताओं को दर्शाते हैं। हालांकि नीति विशेषज्ञों ने इन मुद्दों पर बढ़ते ध्यान का स्वागत किया है लेकिन उनका कहना है कि वन और वन्य जीव संरक्षण सहित कुछ मामलों में सरकारों द्वारा अपनाए गए विरोधाभाषी दृष्टिकोण को देखते हुए कई वादे प्रतीकात्मक साबित हुए हैं।

पर्यावरणीय मुद्दों को प्राथमिकता सूची में सबसे नीचे न रखा जाए, विशेष रूप से वायु प्रदूषण और जलवायु संकट की गंभीर चिंताओं को देखते हुए। यह विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, क्योंकि दुनिया के 100 सबसे प्रदूषित शहरों में से 83 शहर भारत में हैं जबकि उनके घोषणापत्र महत्वाकांक्षी योजनाओं की रूप—रेखा प्रस्तुत करते हैं, असली परीक्षा कार्यान्वयन और शासन में होती है जिसके लिए कानूनों को सख्ती से लागू करने की आवश्यकता होती है। बड़े पैमाने पर वनों की कटाई हुई है। आकड़े बताते हैं कि वर्ष 2000 के बाद से 2.33 मिलियन हेक्टेयर से अधिक वृक्षों का आवरण नष्ट हो गया है। वायु गुणवत्ता, उत्सर्जन और जल संसाधनों के खराब प्रबंधन के कारण 2022 पर्यावरण प्रदर्शन सूचकांक में भारत 180 देशों में अंतिम स्थान पर है।”
पर्यावरणविदों और नीति विशेषज्ञों ने वन संरक्षण अधिनियम में किए गए संशोधनों पर आपत्ति जताई है जिससे जंगलों का एक बड़ा हिस्सा असुरक्षित हो गया है। उनका कहना है कि 2022 में लाए गए वन संरक्षण नियमों ने गैर-वानिकी उद्देश्यों के लिए वन भूमि को डायवर्ट करने से पहले अनिवार्य ग्रामसभा की सहमति की आवश्यकता को कम कर दिया। वे एक ओर वृक्षों का आवरण बढ़ाने का वादा करते हैं और दूसरी ओर कोयला खनन के लिए छत्तीसगढ़ में हसदेव अरण्य जैसे प्राचीन जंगलों को नष्ट करने का वादा करते हैं। केंद्र सरकार ने उद्योगों की मदद के लिए पर्यावरण और वन कानूनों को कमजोर कर दिया।
पर्यावरणीय मुद्दे व्यापक राजनीतिक चर्चा में आजीविका संबंधी चिंताओं के आगे गौण बने हुए हैं।

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