आकर्षण प्रेम का हो

आकर्षण प्रेम का हो

या फिर वस्तु का
भौतिक हो या आध्यात्मिक
बस दूरियों का खेल है…!
किसी वाद-विवाद का
या फिर संवाद का विषय नहीं…
विमर्श का भी नहीं…!
सीधे और सरल शब्दों में
आकर्षण तो है….
सिर्फ और सिर्फ “स्पर्श” का विषय
जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से
आकर्षण की अंतिम परिणति है
आकर्षण का स्थाई भाव है रति
यहाँ एकरस हो जाती है
सभी पक्षों की मति….
“मतिभ्रम” अलंकार की…!
प्रधानता होती है… आकर्षण में…
आकर्षण… प्रकृति का मूल है….
आकर्षण मानवीय उपलब्धि नहीं,
स्वाभाविक अभिव्यक्ति है….
वह तो चिरंतन है… आधिदैविक है
सैद्धांतिक नहीं…. व्यवहारिक है…
संसार में काम-क्रोध और
लोभ-मोह का जनक है…
आकर्षण संबंधों को..
सहजीवी बनाता है….!
विज्ञान भी इन मान्यताओं पर
अपनी मोहर लगता है….!
एकपक्षीय आकर्षण… समाज में..
कुंठा और अवसाद को…!
जन्म देता है….
उभयपक्षीय आकर्षण,
सृजन का आवश्यक तत्व है…..
निरपेक्ष आकर्षण,
स्वान्तःसुखाय होकर भी,
बहुजन हिताय ही होता है….!
इसलिये मित्रों….. समाज़ में….
आकर्षण का अस्तित्व जरूरी है..
इसलिये मित्रों….. समाज़ में….
आकर्षण का अस्तित्व जरूरी है..
रचनाकार—— जितेन्द्र दुबे
अपर पुलिस अधीक्षक
जनपद कासगंज

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