जहां रहो तुम बहार जाए

जहां रहो तुम बहार जाए

(गजल)
बुलंद रखना यूँ हौसला की कोई भी मुश्किल हो हार जाए,
तुम्हे मुबारक नया ये मौसम जहाँ रहो तुम बहार जाए।
मुझे सहारा ज़रा न देना मैं पार आऊँ या डूब जाऊँ,
भँवर में लाकर के मेरी किस्मत मुझे अकेली उतार जाए।
कोई तो अपने हो पास ऐसा कि जिससे झगडूँ कि जिससे रूठूँ,
करूँ जो ज़िद बचपने के जैसी, मैं जीत जाऊँ वो हार जाए।
कहो मसीहा से मेरे जाकर यही समय है हिसाब कर ले,
ज़हर हो जितना ज़बां में उसकी वो पूरा पूरा उतार जाए।
मुझे है प्यारी वो सब व्याथाएं जो मुझमें भरती हैं प्राण रोकर,
मुझे है आदत के घाव रिसकर उदासी गहरी पसार जाए।
गजलकार— वन्दना
अहमदाबाद।

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