होली में अब कहाँ प्रेम का रंग है | #TejasToday
होली में अब कहाँ प्रेम का रंग है | #TejasToday
प्रीति के पर्व जो थे धरा पर मेरे
बह गए क्यों सभी वक्त की धार में
प्रथ प्रगति का मिला लोग हर्षित हुए
दब गए आज क्यों हम उसी भार में
फिर बता तूँ ए जीने का क्या ढंग है
होली में अब कहाँ प्रेम का रंग है।
ऋतु वही मास तिथिभी वही है जो थी
हम समय की तरह क्यों बदलते रहे
बालपन बीता आई जवानी गई
सोचकर खाली हम हाँथ मलते रहे
फिर बुढ़ापे में बेकार सब अंग है
होली में अब कहाँ प्रेम का रंग है।
मन्द शीतल सुगन्धित पवन बह रही
पेड़ पौधे भी हर्षित हैं इस मास में
तेरे चेहरे पे छाई उदासी है क्यों
मन ब्यथित रो रहा तेरा किस आस में
जब पराजित है तूँ फिर ए क्यों जंग है
होली में अब कहाँ प्रेम का रंग है।
रात्रि होलिका जली संग तिमिर जल गया
भानु की ज्योति ने नव उजाला दिया
दूर कर दो घृणा क्रोध नफरत को तूँ
भावकुत्सित जो मन को है काला किया
सार जीवन का है यह नहीं व्यंग है
होली में अब कहाँ प्रेम का रंग है।
त्याग दो लोभ धन और सम्पत्ति का
छोड़कर सब तूँ एक दिनचला जाएगा
शेष रह जाएगी बस कहानी तेरी
फिर ए जीवन कभी तूँ नहीं पाएगा
करलो जीवन सफल रंग का संग है
होली में अब कहाँ प्रेम का रंग है।
होली के गीत है हर्ष उल्लास के
बांध लेगें तुम्हें प्यार की डोर में
रंग खेलो हंसो झूमो गाओ सभी
प्रेम का हो नशा खूब मन मोर में
प्यार की गंग यह भोले की भंग है
होली में अब कहाँ प्रेम का रंग है।।
रचनाकार
डाॅ.प्रदीप कुमार दूबे
(साहित्य शिरोमणि)
शिक्षक/पत्रकार
मो.9918357908