नेकी की दीवार

नेकी की दीवार

बचपन में जाने कितनी बार,
हमने देखा है…
अमूमन…गरीब लोगों को…
बड़े लोगों से… छोटे हो गए…
कपड़ों को माँगकर ले जाते हुए…
और… बिना किसी संकोच के,
बिना किसी शर्म-लोक-लाज के..
अपने बच्चों को पहनाते हुए….
इतना ही नहीं… हमने देखा है…
बच्चों को भी इन कपड़ों पर,
मगन होकर इतराते हुए….
यहाँ तक कि.… हँसकर…!
यह बताते हुए कि… ये कपड़े…
उन चाची-अम्मा-बुआ ने दिए हैं…
उन दिनों रिश्तेदारों के कपड़ों की,
अदला-बदली, उतरन पहनना…!
बहुत ही सामान्य बात थी…..
सिलाई कर घर में ही कपड़ा
साइज़ का कर लेना घरेलू बात थी
कमजोर-गरीब को कपड़ा देना,
नेकी और खुशी की बात होती थी
गाँव के भिखारी मजदूर भी…
दमदारी से कपड़े माँग लेते थे,
जरूरत के मुताबिक वे…!
कपड़े से कपड़ा साट लेते थे…
और…. कैसा भी हो मौसम…
खुश-होकर जीवन….!
उन्हीं कपड़ों में काट लेते थे..
ये लोग भी इसी बहाने…
गाँव के समाज से जुड़े रहते थे,
जरूरत के मुताबिक… गाहे-बगाहे
समाज के संग खड़े रहते थे…
पर आज तो लगता है,
ऐसे गरीब अब खत्म हो गए हैं…
सही बात है मित्रों…!
विकास ने रफ्तार पकड़ी है,
गरीबी कम हुई है… और…
बंद अमीरों की हेकड़ी है… पर…
एक बदलाव… जाने क्यों…?
ऐसा आया है….
जो पहले हम सोचा करते थे,
नेकी कर दरिया में डाल….!
विकास के इस दौर में जाने क्यों,
अब हम खुद ही बना रहे हैं
नेकी की दीवार..नेकी की दीवार..
रचनाकार—— जितेन्द्र दुबे
अपर पुलिस अधीक्षक
जनपद-कासगंज

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