हम और हमारे बूढ़े-बुजुर्ग

हम और हमारे बूढ़े-बुजुर्ग

हमारे गाँव-समाज में
साठ-सत्तर बरस की उमर वाले
अमूमन बूढ़े कहे जाते हैं….
ये बुढ़वे सुबह का अलार्म होते हैं..
कुछ काम..जैसे..झाड़ू-खरहरा से
दुआर साफ करना,
आग का कौड़ा जलाना,
खैनी रगड़ना और
हुक्का गुड़गुड़ाना तो
खुद अपने से ही किया करते हैं
कुछ काम….!
इन्हें सौंप दिया जाता है
जैसे रिश्तेदारी निभाना,
छोटे-मोटे झगड़े सुलझाना,
गाँव की पंचायत और
कचहरी के मुकदमे लड़ना….!
ये बुढ़वे… बड़े ही निश्छल और
दुनियादारी से बेपरवाह होते हैं
सोचिये भला, जब कभी
घर के चार-पांच समवयस्क बच्चे
स्कूल जाना शुरू करते तो
उन सबकी जन्मतिथि…
एक ही साल की एक जुलाई ही
लिखा दिया करते हैं…
इन बूढ़ों को अधिकार होता है
पतंग उड़ाते,नदी नहाते
बच्चों पर नजर रखने का…
ट्रैक्टर की ट्राली से झूलते हुए
बच्चों को टोकने और ठोकने का..
इन्हें अधिकार होता है…
बच्चों पर नाराज होने और
उनकी शिकायत करने का
यहाँ तक कि
डाँटने और मारने का भी…
हर अच्छी बुरी आदतों पर
इनकी नजर होती है
कुल मिलाकर ये बूढ़े
मोहल्ले मेंध्समाज में
सी.सी.टी.वी की तरह होते हैं
इन बातों के इतर…!
ये बूढ़े बच्चों की मिठाई,
चाकलेट, लेमनचूस होते हैं
कौड़ की आग में….
भुने हुए आलू की
सोंधी महक होते हैं…
पल में उनकी नाराजगी और
पल ही में खुशी
सभी को भाती है…और…
अच्छी लगती है…
ये बुढ़वे बच्चों के कथाकार,
कहानीकार होते हैं
बड़ों के क्रोध से बचाव होते हैं
पर विकास के इस कथित दौर में
अब तो इनकी बेकदरी हो रही है..
अकेले-अकेले अपने ही गाँव में
घुट-घुट कर जी रहे हैं और
एकाकी से हो गए हैं…
जबकि सच तो यह है कि ये बूढ़े
अभी भी उतने ही नादान हैं
बदलते परिवेश की….
अभी भी उनको कहाँ पहचान है
और हम लोग ही ……!
ना जाने क्यों यह भूल गए हैं
कि हमारे ये बूढ़े…! ये बुजुर्ग …!
अनुभव की खान हैं और
हमारे दरवाजे की शान हैं …!
हमारे दरवाजे की शान हैं….!

रचनाकार- जितेन्द्र दुबे
क्षेत्राधिकारी नगर, जौनपुर।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Read More

Recent